जब सूरज के अश्व लगे सजने
स्वपनों के हिमखंड लगे गलने
मैं जब तक सजूँ संवर कर चलूँ
कि सजधज शाम लगी ढलने ।

निशा पहन कर तारों के गहने
विगत समय की बात लगे कहने
सुनते-सुनते नींद चली आई
लेकर आई पंख लगे सपने
पता नहीं कब दिशा ललाम हुई
ले विदा भोर से रात लगी चलने ।

बदल-बदल कर करवट भोर हुई
लगा स्वप्न में वर्षा घोर हुई
बता रही है मन की बेचैनी
कि इसमें रहता चोर कोई
खुले नयन से बन्द भले लगते
हैं आते स्वप्न जहाँ पलने ।

2 टिप्पणियाँ:

पवन कौंडल ने कहा… 6 अक्तू॰ 2009, 5:24:00 am  

ब्‍लॉग जगत में आपके आगमन पर हार्दिक शुभकामनाएं। ऐसी मनलुभावन रचनाएं अगर लगातार अंतराल पर हमें पढने को मिलें, तो खुशी होगी।

पूरी तरह सहमत हूं।

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