बार बार कहता हूँ मन के द्वंदों से
पल भर को तो रुको मुझे कुछ कहना है I

मान कहा मन का मैं जीवन भर भटका
समझ नीर कि लहर रेत पर मैं अटका
देख छपे पदचिंह चला पीछे पीछे
लगा चल रहा संग कोई अँखियाँ मीचे
यह मेरी अनुभूति मात्र कल्पना नहीं
थामी जिसने बाहें उसी संग चलना है I

इसने मानी बात न खुद करी मन की
रहा सोचता मैं कब बात करूँ तन की
पलक झपकते ढला सूर्य और शाम हुई
देखें अब यह धुनका कब तक धुनें रुई
अब झीनी सी फटी चदरिया क्या सीना
ओढ़ इसे अब धूप ताप सब सहना है I

तन तो सोया पर मन मीलों मील चला
चखा अमरफल इसने योवन नहीं ढला
अब ऐसे मित्र कहाँ जो देखें बस मन को
है यह जग की रीत सभी देखें तन को
लाख करूँ मैं जतन न छूटे संग इसका
गठबंधन का धर्म इसी संग रहना है I

बी.एल. गौड़

1 टिप्पणियाँ:

रवि सिंह ने कहा… 21 नव॰ 2009, 3:57:00 am  

बहुत खूब,
बहुत बहुत प्यारी कविता लिखी है आपने

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हमराही