नरम हथेली
चलने को तो चला रात भर
चाँद हमारे संग
हुई भोर तो हमने पाया
उड़ा चाँद का रंग

सपनों ने भी खूब निभाई
यारी बहुत पुरानी
कई बार फिर से दोहराई
बीती प्रेम कहानी
लगा स्वपन में धरी किसी ने
माथे नरम हथेली
छूट गई सपनों की दुनिया
नींद हो गई भंग

पूरब का आकाश सज रहा
पश्चिम करे मलाल
जलचर वनचर दरखत पर्वत
सबने माला गुलाल
हर प्राणी उठ खडा हो गया
छोड़ रात के रंग
सूरज सजकर चला काम पर
ले अशवों को संग

भरी दोपहरी हमने काटी
किसी पेड़ की छाँव
रहे देखते हम पगडण्डी
जाती अपने गाँव
ढली दोपहरी कदम बढाए
चले गाँव की और
धूल उडाती गईयाँ लौटीं
चढ़ा सांझ का रंग

धीरे से दिनमान छिप गया
चूमधरा का भाल
हम भी अपने घर जा पहुंचे
आँगन हुआ निहाल
देखे पाँव रचे महावर से
स्वपन हुआ साकार
फिर से चाँद उगा आँगन में
मन में लिए उमंग



6 टिप्पणियाँ:

बहुत ही प्‍यारी कहानी कवि‍ताबदध की है।

आपकी यह रचना पढ़ी तो बरबस आपके प्रोफाइल को खोलकर देखने की चाह हुई, रचना पढ़कर लगा जैसे किसी पुराने कवि की अच्छी कविता पढ़ रहा हूँ

धीरे से दिनमान छिप गया
चूमधरा का भाल
हम भी अपने घर जा पहुंचे
आँगन हुआ निहाल
देखे पाँव रचे महावर से
स्वपन हुआ साकार
फिर से चाँद उगा आँगन में
मन में लिए उमंग


गुनगुनाती हुई कविता...बढ़िया लगी आपकी यह नरम हथेली वाली कविता. बधाई

पूरब की लाली , भरी दोपहरी , शाम का ढालना और फिर चाँद का आना ...एक पूरा दिन घूम आये कविता में ...बधाई ..!!

bahut khoobsurat poem.. first two stanzas are excellent...

bahut khoobsurat... manbhawan..

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हमराही