चुप रहकर

बहुत कुछ कह दिया तुमने
चुप रह कर
मैंने भी
सुन लिया बहुत कुछ
वह भी
जो तुमने नहीं कहा
चुप रह कर

वह बरसों की प्रतीक्षा
शांत नहीं थी
बह रही थी
बनकर एक नदी
कहती हुई व्यथा कथा
चुप रह कर

हम स्वयं को
व्यक्त करें भी तो कैसे
व्यक्त कराने का प्रयास करते ही
फूट पड़ती हैं रश्मियों सी
स्मर्तियाँ -विस्मार्तियाँ
लगता है हाथ अन्धेरा
प्रकाश के स्थान पर


प्रशन पर प्रशन
उत्तर नदारद
मानसपटल पर
चलता है अनवरत
एक धारावाहिक
प्रखर संवादों का
"उसने यह कहा
तो मैंने यह कहा
जब नहीं माना उसने
मेरा कहा
तो कर दिया मैंने भी अनसुना
उसका कहा
चुप रहकर

3 टिप्पणियाँ:

बहुत बढ़िया भाव ......धन्यवाद

बहुत सुन्दर रचना है बधाई।

सर मैंने आपका ब्लॉग पड़ा , सच में आपकी कविता बहुत अच्छी लगी, उप्पर वाली कविता अधूरी थी लेकिन जितनी पड़ी उसे पड़कर पूरी कविता को पड़ने का मन किया, और आपकी दूसरी कविता चुप रह कर का तो कोई जवाब ही नहीं, बहुत प्यारी कविता लगी, आप ऐसे ही लिखते रहे.
प्रकाश रंजन

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