दादा जी (पंडित श्यामलालद्) छोटे कद के, बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। उन्हें सारा गाँव बापू कहता था। दिल्ली का हाल जानने के लिये बड़े बेताब थे, सो थोड़ी देर बाद ही उन्होंने पूछना शुरू कर दिया। गुड़वाली धर्मशाला, बगीची माधेदास, पीली कोठी, मोर सराय, जाट धर्मशाला आदि जहाँ-जहाँ गाँव के ब्राह्मण, ठाकुर, गडरिये, मैना ठाकुर, उपाध्य रहते थे सभी के बारे में यह जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी कि वे सभी इतनी बड़ी मारकाट में जिन्दा बचे या नहीं।
न जाने पिताजी कितनी रात तक उन्हें विस्तार से सब कुछ बताते रहे, मुझे न जाने कब नींद आ गयी । सुबह जब उठा तो सूरज की पहली किरणें हल्की गुलाबी ठंड में लिपटीं सारे आँगन में फ़ैल चुकी थीं और सामने कुए के पास खड़ा पीपल मस्ती में झूम रहा था।
पिताजी के सामने सबसे बड़ी परेशानी थी, मेरी पढाई। दूसरी कक्षा तक मेरी पढाई दिल्ली के उमराव सिंह प्रामरी स्कूल, जो चाँदनी चौक में जग प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर से सटा हुआ है, हुई थी। और अब मुझे तीसरी कक्षा में दाखिला लेना था।
ये सब हालात और बातें 1947 के जुलाई माह के पहले सप्ताह की हैं। अगस्त की 15 तारीख तय हो चुकी थी, देश की आजादी की। जिस दिन देश के पहले प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू को लालकिले की प्राचीर से झण्डा लहराना था। पिताजी ने तय किया किया कि 15 अगस्त का दिन देश के लिये एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दिन है, सो वे मुझे और माँ को लालकिले पर होने वाला यह जश्न जरूर दिखायेंगे।
आजादी के इस पहले त्यौहार पर मैं पिताजी के साथ दिल्ली में था। और भीड़ चूंकि लाखों में थी, सो 11 साल की उमर के किसी बच्चे के लिये यह सम्भव नहीं था कि भीड़ के बीच खड़ा होकर वह देश के पहले प्रधानमन्त्री को आजादी का झण्डा फहराते हुए स्वयं के बल पर देख सके। पिताजी ने मुझे आजादी का पहला दिन और पहला जश्न अपने कंधे पर बिठा कर दिखाया, जिसकी तस्वीर आज भी जहन में ज्यों की त्यों है।
आजाद देश के जन्म का आनन्द बहुत देर तक नहीं रह सका। पिताजी ने शाम को लौटकर बताया था कि पहचान के काफी लोग गायब थे। जिनमें कुछ हमारे खानदानी भी थे और खान साहब भी। खान साहब अपनी पठानी वेशभूषा में खूब जमते थे और घर-घर जाकर हींग बेचा करते थे। वे सब या तो भाग गये थे, या मारे गये थे। लेकिन खान साहब इस दुनियाँ में अब नहीं थे। यह खबर पक्की थी। क्योंकि जो लोग उनसे जुड़े थे, उन्होंने उनकी लाश धर्मशाला की दीवार के साथ वीराने में पड़ी देखी थी। जब भी किसी जाने पहचाने आदमी की खबर मिलती तो घर में मातम छा जाता। पिताजी भी बहुत भावुक व्यक्ति थे और उनका यह गुण मेरे भीतर पूरी तरह समाहित है। जब एक व्यक्ति की दुनियाँ से विदा होने की खबर मिलती तो उसके साथ-साथ एक बड़ा इतिहास भी दफन हो जाता।
समय जहाँ तेजी से आगे दौड़ता है, वहीं बीते हुए पर धूल की परत और खुले घावों पर मरहम लगाता चलता है।
पिताजी फिर से मुझे और माँ को गाँव में छोड़कर अपनी नौकरी पर लौट गये।
अक्तूबर तक मैं बिल्कुल खाली और आजाद था, जो दूसरी कक्षा की किताबें मेरे पास थीं। अक्सर उन्हीं को यदा-कदा पढ़ता या फिर गाँव में नये-नये बने दोस्तों के साथ गाँव में खेले जाने वाले खेल जैसे गिल्ली-डण्डा, चंगला मार, नौ गोटी, कबड्डी या फिर कोड़ा जमालशाही खेलता।

विवश

कभी -कभी
सामर्थ्यवान भी
हो जाते हैं विवश
नहीं दिखा पाते अपने रूप
जैसा की अक्सर होता है
सूरज के साथ
कोहरे में फंसकर

किस कदर
हो जाता है हावी
नाचीज कोहरा सूरज पर
नहीं दे पाता वह दर्शन
धरा के वासिओं को
और उसकी नरम धूप
रह जाती है कसमसाकर

ऐसे में आता है वसंत भी
दबे पाँउ
नहीं होते उसके वसन
चटकीले -पीले
न कंचन से
न पीली केसर से
न सरसों के फूले फूलों से
बस करता है रसम अदायगी
जैसे कोई लड़की
लगवाए तन पर मेंहदी
अनचाहे बंधन पर

बी एल गौड़


लगा था की सब कुछ ठीक होता जा रहा है। चाचा की दुकान फिर से खुल गयी थी। लोग बेंच पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार में छपी ख़बरों पर बहस करते, बगल वाली प्याऊ पर बैठकर ताश खेलते। गुडवालों की धर्मशाला (जहाँ हमारा घर था, यमुना बाजार में भर्ती के दफ्तर के पास है।) में फिर से रोनक लौट आई थी। ताश की चोक्ड़ियाँ मोलश्री के पेड़ के निचे फिर से जमने लगी थीं। तभी एक रात अंगूरी बाग के साथ रेलवे कोलोनी से बचाओ - बचाओ , हर -हर महादेव और या अलाह , अलाह हो अकबर की आवाजों ने आसमान सर पर उठा लिया। पिताजी और हमारे गाँव के अन्य लोग रात भर हमारे घर की छत पर जमा रहे। दूसरे दिन जब काफी धूप चढ़ आई तो पिताजी दो-तीन आदमियों को लेकर रेलवे कोलोनी में गए, क्यूंकि वंहा रहने वाला हजुरा पिताजी के पास ही काम करता था और उसका बेटा रहमतुल्ला मेरा अच्छा दोस्त था। हम अक्सर अपने या उसके मोहल्ले में कंचे खेला करते और कभी किरमिच की गेंद से घंटों खेलते रहते। फिर या तो उसकी माँ या मेरी माँ, डांट कर बुलाती तो खेल बंद हो जाता । हमारे हाँथ - पैर धोए जाते, फिर मुल्तानी मिटटी से पुती तख्ती पर किताब से देखकर लेख लिखे जाते।

लेकिन उस दिन जब पिताजी ने आकर बताया की हजुरा और उसका परिवार का कुछ पता नहीं है और रेलवे का क्वाटर खाली पड़ा है, तब मुझे न जाने क्या हुआ। माँ ने बहुत कहा रोटी खाने के लिए, पर न जाने क्यों कुछ भी अच्छा नहीं लगा। मुझे अच्छी तरह याद है उस दिन न तो पिताजी ने खाना खाया और न ही माँ ने। दोनों ही चुपचाप उदास , बेहद दुखी, न जाने किन ख्यालो में दुबे रहे।

दूसरी रात भी इसी प्रकार रही। नावल्टी सिनेमा के पास पीली कोठी धू -धू कर जल उठी और पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के यार्ड में लोथियाँ पुल के पास पेट्रोल के टेंकों में किसी ने आग लगा दी। आग इतनी भयंकर थी की बाद में लोगों ने बताया की दस-दस मील तक लोगों को आसमान छूती लपटें और धुआं दिखाई दिया था। दिल्ली की सभी दमकलें कश्मीरी गेट और लोंथियाँ ब्रिज जमुना बाजार की सड़कों पर कड़ी थीं। और फायर ब्रिगेड अपनी अपनी जान की बाजी लगाकर आग बुझाने में लगे हुए थे। किसी तरह दूसरे दिन शाम को आग पर काबू पाया जा सका।

दूसरे दिन पिताजी माँ और मुझे लेकर गाँव के लिए निकल पड़े। रेलवे स्टेशन पर सबकुछ अस्त -व्यस्त था। बुक किये बड़े बड़े सामन जो कहीं जाने थे, आधे-अधूरे जले पड़े हुए थे। मालगाड़ियों में लदे हुए सामानों में से लगातार धूया निकल रहा था।

अलीगड़ जाने वाली पेसेंजर गाडी में मैं और माँ लगातार ४ घंटे तक बैठे रहे। डिब्बा खचाखच भरा हुआ था, लोगो ko दर था की शाहदरा से पहले झील खुरंजा पड़ता है। जो सारे का सारा मुसलमान ka hai ।अगर किसी ne gadi वंहा रोक ली तो कोई भी नहीं बचेगा।

इन्ही चर्चाओं में दोपहर १ बजे के करीब गाड़ी चली। और जैसे-तैसे ६ बजे शाम को हमारे गाँव के स्टेशन सोमना पर पहुंची। जहाँ दादी और दादी जी बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। काफी अँधेरा घिर चूका था, मिटटी के तेल की एक dhibree jal rahi थी। or mukhya dwar par ek lalten।

अपनापन
जब भी खोलता हूँ
वातायन के कपाट
पाटा हूँ
दूर तलक फैला घना वन

इसके अतिरिक्त
कोहरा-सन्नाटा
उजाले के साथ मिलकर
साजिश रचता अन्धेरा
वन्य जीवों की बातचीत
पक्षियों के गीत
गीदड़ और भेडियों का
छेड़ा हुआ राग
आरोह-अवरोह
उलझन-ऊहापोह

इससे पहले क़ि यह परिवेश
मेरे भीतर प्रवेश करे
चल पड़ता हूँ
साथ लिए
तन-मन -चेतना -ध्यान , और
अर्जित ज्ञान
किसी पदचाप के पीछे
सोचता हुआ
शायद यहीं कहीं छिपा है
वह परिवेश मनभावन

जीवन के 72वें साल में जब संस्मरणों की बात आई तो मैं शून्य में घंटों तक न जाने कहाँ तक देखता रहा। पहले चीजें कुछ धुंधली सी नजर आईं, फिर धीरे -धीरे धुंध छँटने लगी। जमी धूल हटने लगी और चीजें, घटनाएं बड़ी साफ-साफ दिखने लगीं जैसे किसी ने बड़े करीने से समय के घर में आलों में सजा कर रखी हों। भारत में वर्ष 1947 को एक मील का पत्थर माना जाता है। इस वर्ष में बहुत कुछ घटा था। जहाँ देश ने आजादी का सूरज देखा था, वहीं इसके निवासियों ने आपस में खून की होली भी खेली थी। देश बँटा, लोग बँटे, सभ्यता बँटी और तो और प्यार भी बँटा। बल्कि वह तो इस तरह बँटा कि उसके चीथड़े उड़ गये। पुश्तैनी हवेलियाँ खण्डहरों में तबदील हो गईं और उनके भीतर यादों की किलकारियाँ सदा-सदा के लिए दफन हो गईं। क्या-क्या बताऊँ? मौहल्ले में एक मात्रा चाचा नूरमौहम्मद की दूध्-दही-मिठाई की दुकान लुटी। लोगों ने जी भर कर मिठाइयाँ खाईं। पर चाचा नूरमौहम्मद को मेरे पिता जी ने ऐसी सुरक्षति जगह छुपा दिया था कि लगभग 15 दिन बाद जब वे सबके सामने आये तो नूरमौहम्मद नहीं रामसिंह बन कर आये।उनके दोनों रूप मुझे अच्छी तरह याद हैं, दोनों तस्वीरें मेरे जहन में बड़ी साफ हैं। बड़ी-बड़ी मूँछें, साफ धुला तहमद और कंधें तक की बण्डी जिसमें दो जेबें बाहर और एक बड़ी जेब बाईं तरफ भीतर और पेशावरी काले सैण्डल। ये थे चाचा नूरमौहम्मद और बाद में इकहरी लांग की धेती, आधी बाहों की सफ़ेद कमीज, चोटी-टीका और हाथ में कड़ा ये थे चाचा रामसिंह।
चाचा नूरमौहम्मद का कोई परिवार न पहले था, न बाद में। उनके पास काम करने वाले सब उमर के बच्चे और बड़े ही उनका परिवार था। एक विशेष बात जो मुझे अभी तक याद है, उनका मुझे और पड़ौस के बच्चों को पहले की तरह ही प्यार करना, मेरी दादी और माँ के पैर छूना और पिताजी के पास बैठकर बीड़ी पीना। यह नियम उनके रामसिंह बनने के बाद भी जारी रहा। पिताजी हुक्का पीते रहते और चाचा बीड़ी। 1947 का हादसा जो लगभग अपनी उमर जी चुका था वे शायद चुपचाप उसी के मंजरों में डूबे रहते और उनके ‘चुप’ के संवाद चलते रहते। फिर ‘अच्छा पंडित जी!’ कह कर चाचा अपनी दुकान पर चले जाते और सूरज का रथ तेजी से दौड़ता हुआ पूरब से पश्चिम की ओर चला जाता। पेड़ों के लम्बे साये पुराने अध्जले मकानों पर आकर रूक जाते, रात हो जाती, लालटेनें जल उठतीं, रात होती और हम सब सो जाते। दूसरे दिन फिर सूरज निकलता और दृश्य बदल जाते। पिताजी अपनी सरकारी नौकरी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चले जाते। पिताजी की ड्यूटी एक माह में दो बार बदलती थी। जब कभी मेरी छुट्टी होती तो पिताजी का खाना लेकर मैं खुद स्टेशन पर जाता। पार्सल ऑफिस में पहुँचता तो बड़े बाबू रामरिछपाल जी देखते ही आवाज लगाते ‘ओ-आजा पुत्तर! इत्थे आ-मेरे कोल बैठ!’ और अपनी दराज से चीनी की बनी रंग-बिरंगी दो बड़ी गोलियाँ निकाल कर मेरी हथेली पर रख देते (उन दिनों चोकलेट का चलन नहीं था)। फिर अपने अधीन काम करने वाले किसी आदमी को आवाज लगाते ‘जा वे पंडत को बुला के ला, कहना जल्दी आवे, मुण्डा खाना लेकर आया है।’समय की नदी बड़ी गहरी है और निर्दई भी, न जाने कहाँ गुम हो गया लोगों का वह प्यार जो चीनी से बनी उन गोलियों से भी मीठा था।

कैसे कहें अलविदा तुझको
गान - विदाई गायें कैसे

कुछ मनसूबे जनमे तुझमे
कुछ यादों ने ली अंगडाई
कितने स्वप्न चुराय तूने
कितनी याद किसी की आई
कभी हँसे हम पूरे खुल कर
कभी फूटकर बही रुलाई
छीने जो मनसूबे तूने
उनकी याद भुलाएं कैसे

अब नव वर्ष खड़ा दरवाजे
लोग खड़े ले गाजे बाजे
कुछ ने खुद को खूब सजाकर
अपने दोनों नयना आंजे
नई किरण आवाज दे रही
बुला रहा है नया सवेरा
नई दुलहनिया घर आई है
स्वागत - पर्व मनाएं कैसे ।

हमराही