जीवन के 72वें साल में जब संस्मरणों की बात आई तो मैं शून्य में घंटों तक न जाने कहाँ तक देखता रहा। पहले चीजें कुछ धुंधली सी नजर आईं, फिर धीरे -धीरे धुंध छँटने लगी। जमी धूल हटने लगी और चीजें, घटनाएं बड़ी साफ-साफ दिखने लगीं जैसे किसी ने बड़े करीने से समय के घर में आलों में सजा कर रखी हों। भारत में वर्ष 1947 को एक मील का पत्थर माना जाता है। इस वर्ष में बहुत कुछ घटा था। जहाँ देश ने आजादी का सूरज देखा था, वहीं इसके निवासियों ने आपस में खून की होली भी खेली थी। देश बँटा, लोग बँटे, सभ्यता बँटी और तो और प्यार भी बँटा। बल्कि वह तो इस तरह बँटा कि उसके चीथड़े उड़ गये। पुश्तैनी हवेलियाँ खण्डहरों में तबदील हो गईं और उनके भीतर यादों की किलकारियाँ सदा-सदा के लिए दफन हो गईं। क्या-क्या बताऊँ? मौहल्ले में एक मात्रा चाचा नूरमौहम्मद की दूध्-दही-मिठाई की दुकान लुटी। लोगों ने जी भर कर मिठाइयाँ खाईं। पर चाचा नूरमौहम्मद को मेरे पिता जी ने ऐसी सुरक्षति जगह छुपा दिया था कि लगभग 15 दिन बाद जब वे सबके सामने आये तो नूरमौहम्मद नहीं रामसिंह बन कर आये।उनके दोनों रूप मुझे अच्छी तरह याद हैं, दोनों तस्वीरें मेरे जहन में बड़ी साफ हैं। बड़ी-बड़ी मूँछें, साफ धुला तहमद और कंधें तक की बण्डी जिसमें दो जेबें बाहर और एक बड़ी जेब बाईं तरफ भीतर और पेशावरी काले सैण्डल। ये थे चाचा नूरमौहम्मद और बाद में इकहरी लांग की धेती, आधी बाहों की सफ़ेद कमीज, चोटी-टीका और हाथ में कड़ा ये थे चाचा रामसिंह।
चाचा नूरमौहम्मद का कोई परिवार न पहले था, न बाद में। उनके पास काम करने वाले सब उमर के बच्चे और बड़े ही उनका परिवार था। एक विशेष बात जो मुझे अभी तक याद है, उनका मुझे और पड़ौस के बच्चों को पहले की तरह ही प्यार करना, मेरी दादी और माँ के पैर छूना और पिताजी के पास बैठकर बीड़ी पीना। यह नियम उनके रामसिंह बनने के बाद भी जारी रहा। पिताजी हुक्का पीते रहते और चाचा बीड़ी। 1947 का हादसा जो लगभग अपनी उमर जी चुका था वे शायद चुपचाप उसी के मंजरों में डूबे रहते और उनके ‘चुप’ के संवाद चलते रहते। फिर ‘अच्छा पंडित जी!’ कह कर चाचा अपनी दुकान पर चले जाते और सूरज का रथ तेजी से दौड़ता हुआ पूरब से पश्चिम की ओर चला जाता। पेड़ों के लम्बे साये पुराने अध्जले मकानों पर आकर रूक जाते, रात हो जाती, लालटेनें जल उठतीं, रात होती और हम सब सो जाते। दूसरे दिन फिर सूरज निकलता और दृश्य बदल जाते। पिताजी अपनी सरकारी नौकरी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चले जाते। पिताजी की ड्यूटी एक माह में दो बार बदलती थी। जब कभी मेरी छुट्टी होती तो पिताजी का खाना लेकर मैं खुद स्टेशन पर जाता। पार्सल ऑफिस में पहुँचता तो बड़े बाबू रामरिछपाल जी देखते ही आवाज लगाते ‘ओ-आजा पुत्तर! इत्थे आ-मेरे कोल बैठ!’ और अपनी दराज से चीनी की बनी रंग-बिरंगी दो बड़ी गोलियाँ निकाल कर मेरी हथेली पर रख देते (उन दिनों चोकलेट का चलन नहीं था)। फिर अपने अधीन काम करने वाले किसी आदमी को आवाज लगाते ‘जा वे पंडत को बुला के ला, कहना जल्दी आवे, मुण्डा खाना लेकर आया है।’समय की नदी बड़ी गहरी है और निर्दई भी, न जाने कहाँ गुम हो गया लोगों का वह प्यार जो चीनी से बनी उन गोलियों से भी मीठा था।

1 टिप्पणियाँ:

आज़ादी के बारे में केवल किताबों में ही पढ़ा है..आपके अनुभव बहुत मेरे लिए काफी महत्वपूर्ण हैं...आज़ादी और उसके बाद के बारे में हमें यूँ ही बताते रहिये..आपका धन्यवाद

एक टिप्पणी भेजें

हमराही