जाने ऐसा क्यों लगता है
सूरज अब धीरे चलता है
संध्या के पंजों से घायल
कुछ कुछ लंगडा कर चलता है

कनक रंग से रंगी चूनरी
अपने हाथ उढ़ा धरती को
फिर धीरे से गोता खाकर
चल देता अनजान नगर को
हम ही जानें जाने कैसे
तिल तिल करके तम गलता है

गई रात तक हम गिनते हैं
दिन के छूटे काम अधूरे
सपनों में भी ताना बुनते
कल सब कैसे होंगे पूरे
हम चिंता में यह मस्ती में
यही आचरण तो खलता है

टूटे फूटे स्वप्नों के संग
तंद्रा - निद्रा के बंधन में
ओढ़ चदरिया सोते जगते
लेकर कई प्रशन उलझन में
इसकी फिर से वही कहानी
राह पुरानी पर चलता है

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हमराही