कौन है नेपथ्य में
जो दे रहा मुझको निमंत्रण

कौन है
जो रात के अंतिम पहर में
पास आकर मुस्कराकर
है बताता राह आगे की
कौन करता रोज कोशिश
नींद कच्ची से जगाने की
जब कभी एकांत में
कुछ सोचता हूँ
तब न जाने कब कहाँ से
आ खड़े होते हैं सम्मुख
बीते हुए रीते हुए कुछ क्षण

कैसे बताऊँ मैं उसे
की स्वप्न बेहतर हैं
हकीकत से
पर नहीं है जीत
उनके भाग्य में
भोतिक जगत से
तू कहीं पर है
इसी एहसास ने
मुझको बनाया मर्ग सरीखा
ओर तब से
खोजने को ताल जल के
तप्त रेगिस्तान में
मैं कर रहा विचरण

जानता हूँ
स्वांस तो गिनकर मिले हैं
हैं अभी कुछ शेष
क्योंकि हम धीरे चले हैं
कर रहा अब तक प्रतीक्षा
मैं किसी के आगमन की
कौन जाने
वह कभी आये न आये
सुन सके जो बात मन की
बस स्वांस ही आधार है
चलता रहे
जब तक चले
दीप में जलती हुई बाती
जलती रहे
जब तक जले
कौन कर पाया कभी
आती जाती स्वांस पर
अपना नियंत्रण

2 टिप्पणियाँ:

बहुत खूब कहा।

मैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.

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हमराही