देखता हूँ जब क्षितिज पर
सूर्य को प्रस्थान करता
ठहर कर मैं एक पल को
फिर स्वयं से प्रशन करता

जोहते कब तक रहोगे
बाट तुम उस हमसफ़र की
जो न जाने जा बसा अब
कौन सी बस्ती नगर की
भीड़ रिश्तों की बहुत पर
कौन किसकी धीर धरता

पूछता अब नित्य मन से
राह अपनी को बदल दूं
छोड़ कर व्यापार नित का
तीर गंगा के शरण लूं
नीर का संगीत जिसका
पीर का उपचार करता

सोचता हूँ फिर ठहरकर
ए नियति ले चल कहीं पर
पर तनिक यह देख लेना
मैं रुकूं ऐसी जगह पर
प्यास से व्याकुल जहां पर
हो न कोई म्रग भटकता

2 टिप्पणियाँ:

कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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हमराही