देश को आजाद हुए 63 बरस बीत गये। जब देश आजाद हुआ तो लोग खुशी से झूम गये कि अब वतन आजाद है, अब इसमें निकलता हुआ सूरज हमारा अपना होगा, इसकी आबोहवा में बसे हुए डर का नामोनिशां नहीं होगा। राजतंत्र और गोरे बादशाहों की जंजीरों से हम छूटे और राज शुरू हुआ, हमारे अपनों का अपनों पर, अपनों के लिए। अर्थार्त राजतंत्र प्रजातंत्र में बदल गया। लेकिन चन्द बरसों में ही लोगों की समझ में आने लगा कि वर्तमान तंत्र में उनके साथ छल हो रहा है। लोकतंत्र और प्रजातंत्र जैसे शब्दों का अर्थ ही बे-मानी हो गया है। यदि तीस लोगों को अपना प्रधान चुनना है तो जिधर 16 के वोट होंगे प्रधान उन्हीं का होगा, चाहे वे 16 के 16 बेईमानी और भ्रष्ट ही क्यों न हों। और इसी संख्या बल के खेल का नाम रख दिया गया डैमोक्रैसी। बड़े-बड़े प्रायोजित विद्वान इस देश की जनता का प्रजातंत्र । डैमोक्रैसी का शाब्दिक अर्थ समझाने लगे गवर्मेंट ऑफ़ दी पीपल, फॉर दी पीपल और बाई दी पीपल। सब कुछ ठीक था, लेकिन इस सब में यह पीपल अर्थार्त पब्लिक कहीं नहीं थी। इसे तो मान लिया गया था - भेड़ों का झुण्ड। जब भी चुनाव आते- बगुले बंगलों से सड़क और गलियां में दिखाई देने लगते और भेड़ों की भीड़ का एक-एक आदमी, आदमी से बदलकर वोट बन जाता। जब भी कभी नेताओं के आवास पर चुनाव सम्बन्धी बैठक होती तो सभी प्रश्नों और उत्तरों में एक ही बात की चर्चा होती कि अमुक स्थान में अपने कितने वोट हैं और यदि नहीं हैं तो शेष आदमियों को कैसे वोट में तब्दील किया जा सकता है।
देश की संसद के लिए और प्रदेशों की विधान सभाओं के लिए जब चुनाव के मेले समाप्त होते तो वहां बनती सरकारें। वे सरकारें जो देश चलाती हैं अर्थार्त जनता को हाँकती हैं। जो नेता कल तक वोट के लिये दरवाजे पर खड़ा था आज उसके द्वार पर तैनात वर्दीधारी गार्ड और लान में घूमते कुत्ते उसी वोटर को अपने चुने हुए प्रतिनिधि की एक झलक से भी रोकने से गुरेज नहीं करते। इस तरह के हालात बीतते-बीतते आ गया नयावर्ष -2011
पिछले बरस अर्थार्त 2010 में हमारे देश में एक बड़ा कार्य हुआ अर्थार्त राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में हुआ। जिन भ्रष्ट लोगों के हाथों में आयोजन की कमान थी, उनका कलमाड़ी नाम का एक मुखिया था। इस मुखिया के तहत एक समिति बनी, जिसका मुख्य पेशा था - लूट और साथ ही साथ राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन। खेलों की तैयारियां चलती रहीं और लूटमारों की तिजोरियां भरती रहीं (जनता की खाली होती रहीं)।
फिर खेल खत्म और पैसा हजम वाला दिन आया। खेल खत्म हुए और भ्रष्टाचार को देख-देखकर दुखी हुई जनता को मुर्ख बनाने के लिए और भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए जाँच समितियां बनने लगीं। मीडिया और जनता डर-डर कर शोर मचाने लगे कि खेलों में भ्रष्टाचार हुआ है। फिर जाँच में थोड़ी आँच लगाईं जाने लगी, कुछ गिरफ्तारी आदि होने लगीं। इसी दौरान और भी कई बड़े घोटाले हुए। 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला वह भी एक लाख छियत्तर हजार करोड़ का था। उसी तरह कोई तेलगी घोटाला तो किसी अली का घोटाला इत्यादि। हताश जनता यह मान बैठी कि अब कुछ होने वाला नहीं है और हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे ही भ्रष्ट तंत्र में जीना पड़ेगा। 63 सालों का घोटालों का इतिहास साक्षी है कि घोटालेबाज चाहे केन्द्र के रहे हों अर्थार्त प्रदेश के, उनका आज तक कुछ भी नहीं हुआ और न भविष्य में कुछ होने वाला है। भले ही जनता की नजर में वे दागदार रहे हों लेकिन यह निश्चित है कि वर्तमान तंत्र के अंतर्गत वे बेदाग छूटेंगे। क्योंकि पिछले 63 बरसों की एक भी नजीर ऐसी नहीं है जिसे सामने रख कर यह कहा जा सके कि हाँ फलाँ घोटाले में फलाँ घोटालेबाज को इतनी सजा हुई थी।
ऐसे ही घुटन भरे नीम अँधेरे में से एक सूरज निकला जिसका नाम है -अन्ना हजारे , यह सूरज निकला महाराष्ट्र की धरती पर। हालांकि सूचना का अधिकार (आर.टी.आइ) का कानून बनते समय- अन्ना हजारे का नाम सुर्ख़ियों में रहा, लेकिन उसे तब तक बालरवि के रूप में ही जाना जाता रहा। लेकिन 5 अप्रैल का यह अन्ना हजारे नाम का सूरज अचानक दिल्ली की दहलीज पर आ चमका। और उसने आते ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बिगुल बजा दिया। उसके शंख की ध्वनि पूरे देश में पहुंच गई और सारा देश एक गहरी निद्रा से जाग गया।
अन्ना हजारे भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर अनशन पर बैठ गये। देश की जनता को लगा कि गाँधी फिर लौट आये हैं, इस बार विदेशियों से नहीं देशियों से आजादी दिलाने के लिए। उनका अनशन तुड़वाने के लिए सरकार ने बड़े प्रयत्न किये अन्ना को बतलाया गया कि जो लड़ाई आप लड़ने आये हैं वही तो हम भी लड़ रहे हैं और बिल्कुल उसी तर्ज पर लड़ रहे हैं जिस पर पूरे 63 साल से हम से पहले वाले नेता लड़ते रहे हैं। अन्ना को ये सब दलीलें बेहूदी लगीं, वे एक ही बात को लेकर अड़े रहे कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो भी समिति बनेगी उसके आधे सदस्य जनता के होंगे और आधे सरकार के और इसका अध्यक्ष होगा कोई न्याय में आस्था रखने वाला सेवानिवृत्त न्यायाधीश । न इससे ज्यादा न इससे कम और अन्त में इस नये गाँधी के सामने वर्तमान सरकार को घुटने टेकने पड़े। केवल 83 घंटे में सरकार पूरी तरह हिल गई , सारे देश में एक सैलाब आ गया, हर जुबान पर एक ही नाम था और वह था- अन्ना हजारे अमर रहें, अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं, देश का हर नागरिक यही आवाज देने लगा। और अन्ना हजारे की विजय के साथ ही यह 83 घन्टे का युद्ध दिनांक ८.४.२०११ को रात लगभग 11 बजे समाप्त हो गया। अब एक कानून बनेगा और उम्मीद है कि घोटालों के युग की समाप्ति होगी।
अन्ना हजारे जैसे युग पुरुष बड़ी मुद्दत के बाद किसी देश की धरती पर जन्म लेते हैं। शतायु हों श्री अन्ना हजारे यही प्रार्थना है ईश्वर से।
- बी.एल. गौड़

बचा ही नहीं बूँद भर अम्रत पी गए देव बिना विचारे बोल का परिणाम महाभारत हुआ निस्सार शपथ लेते लेते गीता का सार लम्बी उमर नापते अनुभव न कि बरस सीता का दुःख उर्मिला के सम्मुख कुछ भी नहीं एक ही प्रश्न कब हों पीले हाथ चिंता में तात चुनाव देख बगुलों के वेश में निकले कौवे केन्द्रविंदु है सीता अपहरण रामायण का बी एल गौड़

अब खबर आई है कि भारत सरकार की नामी-गिरामी एजेंसी सी.बी.आई . फिर से सक्रिय हो गई है। उसने कहा है कि अब वह 26 साल बाद इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी मानव त्रासदी - " भोपाल गैस काण्ड " के सबसे बड़े अपराधी वारेन एंडरसन को वापिस भारत लाकर उस पर अपराधिक मुकदमा चलाना चाहती है। प्रश्न यह उठता है कि उसे अब तक किसने रोका हुआ था। क्या यह संस्था जो सीधे- सीधे भारत सरकार के आधीन है और कहते हैं कि यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है तो इतनी अच्छी बात उसे पहले क्यों नहीं सूझी। अब इस एजेंसी ने बड़ी मेहनतकर 33 पन्नों में यह बात लिखकर अदालत को बताई है कि एंडरसन को भारत लाना क्यों जरूरी है और यही एकमात्र रास्ता है जिससे 26 साल पहले जो हजारों आदमी एंडरसन की फैक्ट्री यूनियन कार्बाइड के गैस रिसाव से मर गये थे, उनकी आत्माओं को न्याय दिलाया जा सके। वैसे भी हमारे देश की परिपाटी बन चुकी है कि हम दिवंगत आत्माओं को ही न्याय दिलवा पाते हैं। इसका एक लाभ दिवंगतों के बचे-कुचे संबंधियोँ को यह मिलता है कि उनके मन में पल रहा दु:ख कुछ कम हो जाता है। अब श्रीमान एंडरसन 90 वर्ष के हो चुके हैं, जिन्हें भारत की अदालत में पेश करना है। अभी तो सी.बी.आई . ने इस काम को अंजाम देने के लिए तीस हजारी कोर्ट में 33 पन्नों का प्रार्थना -पत्र दिया है कि उसे ऐसा करने की इजाजत दी जाए। भारत में न्याय-प्रक्रयिा की देरी इस बात का सबूत है कि यहाँ आनन-फानन में कोई फैसला नहीं लिया जाता है, यहाँ दूध् का दूध् और पानी का पानी करने के लिये ही समय लगता है। उदाहरण के लिए जब सी.बी.आई . ने आदरणीय सुखराम शर्मा पूर्व संचार मंत्री भारत सरकार के आवास से कई करोड़ रुपये बरामद किये जो उनकी आय से अधिक थे, तो उन पर मुकदमा चला। 13 साल बाद उन्हें हाईकोर्ट ने बुलावा भेजा और जब सजा सुनाने की बात आई तो 80 वर्षीय सुखराम जी ने फरमाया कि अभी तो उनके लिए उच्चतम न्यायालय के दरवाजे खुले हैं। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट जायेंगे और इस तरह वे अपने जीवन के अंतिम वर्ष सुख-सुविधओं के साथ गुजारेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें मुकदमों के चलते-चलते बीसियों साल गुजर गये हैं और ये मुकदमे हैं कि कभी थकते नहीं। बोफोर्स तोप वाला मुकदमा तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने तंग आकर उसकी क्लोजर रिपोर्ट का आदेश पास कर दिया। सन् 1984 का सिख कत्लेआम का मुकदमा अभी भी सिसक-सिसक कर चल रहा है। एक आतंकी भाई जिन्हें अफजल गुरु कहते है, उनका तो मुकदमा ही एक नजीर बन गया है जिसकी फ़ाइल में ऐसे पहिये लगे हैं कि वह कही भी किसी भी कारालय में टिक ही नहीं पाती और बिना किसी अल्पविराम के दौड़ती रहती है इधर से उधर और उधर से इधर । भोपाल काण्ड के सबसे बड़े अपराधी 90 साल के एंडरसन भारत लाये जायेंगे और यह तो निश्चित है कि भारत आते-आते वे 91-92 साल के तो हो ही जायेंगे। फिर लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन पर मुकदमा चलेगा। और मेरे विचार में चूंकि वे अमेरीकी नागरिक हैं तो जमानत मिलने में विलम्ब नहीं होगा। और एक आशंका यह भी है कि अमेरिका सीधे- सीधे " नो " कह दे तो फिर इस पर बड़ी-बड़ी टिप्पणियां आयेंगी और बरसों तक इस पर लफ्फाजी होगी। क्या यह मुहिम उन हजारों मृत व्यक्तियों के परिजनों को रेगिस्तान में जलाशय दिखाने जैसी नहीं है? या फिर यह मुहिम इसलिए है कि इतने बड़े नर-संहार में भारत सरकार अब तक मौन साधे रही, जिस कारण जनता में सरकार के प्रति एक उदासीनता की भावना घर कर गई । शायद सरकार के इस कदम से जमी बर्फ कुछ पिघले।

बी.एल. गौड़

हमराही