प्रिय मित्रो ! एक लम्बे अरसे के बाद लौटा हूँ , आशा है क्षमा करेंगे " परिस्तिथियाँ लौह क़ी चट्टान होती हैं / यह मुझसे बढ़कर जानता है कौन / यह कविता फिर कभी , अभी " मैं नदी हूँ "
मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
पीर हूँ हिमखंड क़ी
जब सह न पाया ताप वह
दिनमान के उत्कर्ष का
गलने लगा
बहने लगा , वह
धार बनकर नीर क़ी
बहती हुई उस पीर का
परियाय्वाची नाम मेरा धर दिया
कह दिया
कि मैं नदी हूँ
संजीवनी वनखंड की

छोड़ पीहर जब चली थी
चाल मेरी थी प्रचंड
पारदर्शी रूप में ज्यों
बह रहा हिमखंड
पर धरा के वासिओं ने क्या किया
कि गंदगी के ढेर से
हर अंग मेरा ढक दिया
और चांदनी सा रूप मेरा
बादलों सा धूसर कर दिया
अब क्या करूं
बेहद दुखी हूँ
मार कर मन बह रही हूँ
चल रही हूँ चाल मैं वितंड की

क्या कहूँगी मैं समंदर से
जो बड़ा बेताब है मेरे मिलन को
कैसे कहूँगी
प्रिय ! तुम मुझे स्वीकार कर लो
मैं कुरूपा हूँ नहीं कर दी गई हूँ
नहीं यह दोष मेरा
दोनों तटों को आज मेरे
आदमी का रूप धरकर
वनचरों ने आन घेरा
लाज उनको है नहीं छूकर गई
पूरी तरह विद्द्रूप कर के वे मुझे
कह रहे हैं गर्व से
कि मैं नदी हूँ
भोगती हूँ नित सजा म्रत्युदंड की
बी एल गौड़

7 टिप्पणियाँ:

दोनों तटों को आज मेरे
आदमी का रूप धरकर
वनचरों ने आन घेरा
लाज उनको है नहीं छूकर गई
पूरी तरह विद्द्रूप कर के वे मुझे
कह रहे हैं गर्व से
कि मैं नदी हूँ
भोगती हूँ नित सजा म्रत्युदंड की...रचना कहूँ या अनुभवों का सुदर्शन चक्र कहूँ - एहसासों की इस नदी ने तृप्त किया

nadee, nadee ka dard, aur hamaari naasamjhi.....behtareen taalmel ke saath ek sunder abhvyakti..............

behatreen..aanand aa gaya. aabhar

गौड़ साहब,
आपकी कविता लॉर्ड टेनिसन की कविता की याद ताज़ा कर जाती है... कविता पढते हुए यह भान होता है कि एक बहती नदी कलकल करती हुई अपनी यात्रा कथा हमसे कह रही है!!
बहुत ही सुन्दर!!

सच्चाई को बयाँ करती ........... बहुत अच्छी प्रस्तुति........

हकीकत प्रस्तुत करती बहुत सुन्दर कविता।

bahut hi sundar bhav se bhari rachna ....

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हमराही