आ गया फिर से वही दिन
बोझ कन्धों पर उठाये
चल रहा है अनमना—सा
दर्द अन्तस में छुपाये।
बढ़ रहा लेकर विकल मन
ताप से जलता हुआ तन
जा रहीं पगडण्डियॉ सब
पार जंगल के घने वन
तू कहाँ जा कर रूकेगा
प्यास मन की बिन बुझाये।
किस तरह की यह उदासी
नीर बिन ज्यों मीन प्यासी
और थोड़ी दूर चल तू
साँझ बैठी है रुँआसी
कौन उसका हाथ थामे
कौन घूँघट को उठाये।
तू निशा के द्वार जाकर
चैन की कुछ साँस लेगा
स्वपन माया के रचेगा
भोर को फिर चल पड़ेगा
बिन कोई कारण बताये
पीर की गठरी उठाये।
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