इस मन का पागलपन देखूँ
या जर्जर होता मन देखूँ
देखूँ  सपनों के राजमहल
या यादों के उपवन  देखूँ  ।

इक मीठी याद भुलाने को
क्यों एक उमर कम पड़ती है
क्यों जग से जाने से पहले
हर सांस सांस से लड़ती है
फिर, अंत समय कहती बाती
तम  देखूँ   या ईंधन  देखूँ  ।

धरती के कण—सी उमर मिली
पर्वत—से पाले मंसूबे
अब कुछ तो हम पूरे कर लें
क्यों रहें कशमकश में डूबे
क्यों अंत समय यह प्रश्न रहे
मैं तन  देखूँ   या मन  देखूँ  ।

पल अंतिम आंखें रही खुली
इसलिए कि शायद तुम आओ
वह राग बसा जो रग—रग में
तुम शायद फिर से दुहराओ
अब कहता मन न स्वपन देखूँ
अब देते विदा स्वजन  देखूँ  ।

उन्मीलित पलकें खोज रहीं
जीवन के रंगीं, सपनों को
इस जुटी भीड़ में ढूंड रहीं
कुछ गैरों को, कुछ अपनों को
अब होतीं बन्द पलक देखूँ
या होते सजल नयन  देखूँ  ।


5 टिप्पणियाँ:

बहुत भाव प्रधान रचना ....अंतिम छंद बहुत सुंदर

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 06-09 -2012 को यहाँ भी है

.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....इस मन का पागलपन देखूँ .

बहुत मनमोहक गीत |

कविता को सिद्ध करती कविता!

बहुत सुन्दर.बेहतरीन एवं प्रभावशाली रचना..

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हमराही