‘पदोन्नति में भी आरक्षण होना चाहिय’ इस मुद्दे को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती बुद्धवार 12 दिसम्बर को राज्यसभा में भड़क गईं। अब यह जो भड़कना है किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी हो सकता है। यह निर्भर करता है कि व्यक्ति विशेष में कितना ज्वलनशील विचार जोर मार रहा है। जब व्यक्ति के अन्तस में विचारों की ज्वाला धधक रही होगी तभी वह अपनी वाणीं के द्वारा भड़क सकता है अन्यथा नहीं।
मायावती जी का भड़कना स्वाभाविक है। जिस वोट बैंक के सहारे वे बार-बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचती हैं उसके हितों का ख्याल रखना और वह भी आवश्यकता से अधिक उनकी अपनी जरूरत है।
वैसे न्यायिक दृष्टि से देखा जाये तो प्राकृतिक न्याय तो यह कहता है कि जब एक बार भर्ती के समय आरक्षण का लाभ किसी व्यक्ति को दे दिया गया तो फिर तो सभी एक ही प्लेटफार्म पर आ गये। उसके बाद तो अपनी-अपनी काबलियत के हिसाब से पदोन्नति होनी चाहिये। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
अभी तक हमें तो यही बात समझ में नहीं आई कि पदोन्नति में आरक्षण में नया क्या है। लगभग 30 साल तक मैं स्वयं ही रेल विभाग में देखता रहा हूँ कि जब भी पदोन्नति की बात आई तो वहाँ पर यह आरक्षण सदैव ही मौजूद था। हमारे साथ के और हमसे जूनियर लोग कोटे के तहत अर्थात पदोन्नति में आरक्षण कोटे के तहत हमसे कहीं आगे निकल कर हमारे ही अधिकारी बन गये, तो यह कोटा तो वहाँ बहुत पहले से मौजूद है फिर इसमें नया क्या है।
खैर छोडि़ये हो सकता है हमारी समझ का ही फेर हो, मुद्दा तो यह है कि मायावती जी राज्यसभा के सभापति श्री आमिद अंसारी पर भड़क गईं और जोश में आकर वो अपने सभी सांसदों के साथ वैल में पहुँच गईं। उनकी भड़क से जो चिंगारियाँ निकलीं उनसे बेचारे सभापति जी असहज हो गये बल्कि यों कहिये कि आहत हो गये और दुखी होकर अपने कक्ष में चले गये बिलकुल उसी प्रकार जिस प्रकार केकई अपने कोप भवन में चली गईं थीं। अन्तर केवल इतना था कि केकई रूंठ कर गईं थीं और सभापति जी दुखी होकर।
उसके बाद उनका दुख बाँटने के लिये कई सांसद उनके कक्ष में गये और इस दुखद घटना पर अफसोस जताया। मायावती जी की यह भड़कने वाली बात राज्यसभा की कार्यवाही में से बाहर निकाल दी गई। प्रधानमंत्री जी ने अपना संदेश भेजकर सभापति जी के घायल मन पर मरहम लगाया।
सुनते हैं कि बाद में मायावती जी कुछ नरम पड़ गईं जिससे सभापति जी को बड़ी राहत मिली और वे बड़े खुश हुअे और नार्मल होकर उन्होंने राज्यसभा के स्थगन समय के पश्चात कार्यवाही को फिर से सुचारू रूप से शुरू किया गया।
सुना है इसी बीच श्री मुलायम सिंह भी भड़के और उन्होंने कहा कि इस प्रकार हर बार प्रमोशन में आरक्षण रखने से तो सारी व्यवस्था ही खराब हो जायेगी और हमारे जनाधार का क्या होगा।
वे पूर्व की तरह राज्यसभा से वाक-आउट कर गये। औपचारिकतावश प्रधानमंत्री जी ने उन्हें मनाने के लिये अपने कई दूत भेजे। लेकिन परिणाम शून्य ही रहा अर्थात् वे वाक-आउट के बाद वाक-इन नहीं हुअे। सरकार को मौका मिला जाँचने का कि भारी कौन है।
तो मायावती जी की भड़क ही भारी निकली और उनकी ही बात मानी गईं। यह बिल  ‘‘हर प्रमोशन में आरक्षण’’ प्रेषित होना बाकी है बल्कि इसे पास हुआ सा ही समझो। जिन दूसरी पार्टियों ने अपना गणित लगा लिया है कि इस बिल से अपने को क्या फायदा होगा वे इस बिल का सपोर्ट कर रही हैं। मुलायम सिंह जी के इस बिल के विरोध में जो तेवर, जो भड़क दृष्टिगोचर हो रही है वह इस कारण है कि इस बिल के कानून बन जाने पर जो भी लाभ होगा वह केवल एस.सी./एस.टी. को होगा पिछड़ों को नहीं और जब पिछड़ों को इससे कोई लाभ नही ंतो मुलायम सिंह जी क्यों मुलायम पड़ें।
अन्त विजय ही तो असली विजय होती है। नतीजा यह निकला कि मायावती जी की भड़क ने मुलायम सिंह जी की भड़क को पटकनी दे दी।
हम सबको इस ‘भड़क’ का शौर्ट टर्म कोर्स अवश्य करना चाहिये आजकल इसी से मुद्दे सुलझते हैं।

श्री बी.एल.गौड़


हम तेजी से प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन अपनी जरूरतों के साथ-साथ समाज में सक्रिय योगदान देने वाले लोगों को जब सम्मानित किया जाता है तो उनका मनोबल बढ़ता है और अन्य लोग भी अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित होते हैं। यह बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद जय प्रकाश अग्रवाल ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (आइसीसीआर) स्थित आजाद भवन में कही। मौका था सामाजिक एवं साहित्यिक संस्था उद््भव द्वारा आयोजित सांस्कृतिक सम्मान का।
कार्यक्रम में उद्भव शिखर सम्मान से आइआरएस संगीता गुप्ता, साहित्यकार बीएल गौड़, कानपुर के ज्योतिषाचार्य रत्नाकर शुक्ल, महाराष्ट्र के समाजसेवी संभाजी एन. गित्ते, सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता चंद्रशेखर आश्री के अलावा उद्भव विशिष्ट सम्मान से शिक्षा अधिकारी एम.एल.अम्भोरे, देहरादून से आए साहित्यकार रूपनारायण सोनकर, शिक्षाविद् वासुदेव पंत को सम्मानित किया गया। उद्भव मानव सेवा सम्मान से समाज सेवी प्रवीण धींगरा, रामबिलास अग्रवाल, अनिल वर्मा, साहित्यकार डा. लालित्य ललित, शिक्षाविद् स्वाति पूर्णानंद को सम्मानित किया गया। मंच का संचालन उद्भव के महासचिव और साहित्यकार डा. विवेक गौतम ने किया। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में सलाहकार हिंदी आइसीसीआर अजय गुप्ता, कवितायन के अध्यक्ष वी. शेखर, शिक्षाविद् अशोक कुमार पांडेय, भारत भूषण गुप्ता, वरिष्ठ साहित्यकार डा. अरुण प्रकाश ढौंडियाल मौजूद थे। इनके अलावा शिक्षाविद सीपीएस वर्मा, समाजसेवी एस.एल.चौरसिया, हरिराम द्विवेदी, दिनेश उप्रेती और रामचंद्र बडोनी का विशेष योगदान रहा।


सूरज अब तू अपने घर जा
साँझ लगी ढलने
मैं भी धीरे-धीरे पहँुचँू
घर आँगन अपने।

सुबह सवेरे फिर आ जाना
उसी ठिकाने पर
पंक्षी जब नीड़ों से निकलें
फैला अपने पर
तब हम दोनों साथ चलेंगे
फिर संध्या की ओर
तुम अस्ताचल ओर सरकना
मैं नदियों के छोर
घर में बाट जोहते होंगे
कुछ मेरे अपने।

मन-भावन का मिलना जग में
केवल सपना है
अमर प्रेमी भी इस दुनिया में
एक कल्पना है
सारी रात बदल कर करवट
जब हमने काटी
ऐसे कब तक काम चलेगा
पूछे यह माटी
बुद्धि कहे मन से सुन पागल
देख न तू सपने।

तू अविनाशी अजर अमर तो
मैं भी उसका अंश
तुझको व्याधि नहीं छू पाती
पर मैं सहता दंश
सबसे बड़ी पीर है मेरी
मिला ना कोई मीत
मन भी कितना मुरख निकला
पग-पग ढँूडे प्रीति
रहा दौड़ता हिरन सरीखा
नहीं मिले झरने।



बी.एल. गौड़


जैसे ही सर्दी की शरूआत हुई तो माननीयों के मन में हूक उठी कि क्यों न हम अपनी सबसे बड़ी पजायत का भी एक सत्र बुला लें। वैसे तो इसके लिये सरकारी सांसदों की अर्थात् सरकार की मंशा ही काफी होती है लेकिन औपचारिकतावश विपक्ष से भी राय कर ली गई। अकसर देखा जाता है कि संसद के पुस्तकालय में अर्थात लगभग निःशुल्क चलती संसद कैंटीन में वे सांसद एक ही मेज पर काफी पीते मिल जाते हैं जो अभी-अभी ब्रेक से पहले एक-दूसरे के गिरेबान तक हाथ बढ़ा रहे थे, आस्तीनें चढ़ा रहे थे और ऐसी कठोर भाषा का प्रयोग कर रहे थे कि यदि लखनऊ के नवाबों का जमाना होता तो आधे नवाब और आधी बेगमें बेहोश हो जातीं।
लखनऊ का एक किस्सा यहाँ बयान करने से विषयान्तर नहीं होगा, वह कुछ इस प्रकार हैः-दिल्ली का एक व्यापारी किसी कार्य से लखनऊ गया। इक्केवाले से मुखातिब हुआ ‘‘ओ इक्केवाले! हजरतगंज चलेगा’’ इक्केवाल ने उसकी बात को कान ही नहीं दिया। फिर दूसरे से उसने इसी टोन में बात की लेकिन उसने भी उससे बात नहीं की। तब उसने टोन बदली ‘‘भय्या इक्केवाले! क्या हजरत गंज तक चलोगे’’ इस पर इक्केवाले ने कहा ‘‘भय्या! पढ़े-लिखे लगते हो, किसी को भी थोड़ी तहज़ीब और प्यार से ही पुकारा करो। हम तो खैर वक्त के मारे हैं चल ही पड़ते लेकिन हमारा घोड़ा हमसे ज्यादा तमीजदार है यह बिलकुल भी तैयार नहीं होता’’ इस जरा सी बात ने उस व्यापारी को थोड़ी तमीज जरूर सिखा दी होगी।
लेकिन आप ऐसी कोई उम्मीद संसद के गलियारे से न पालें। अभी कुछ दिन पहले ही कुछ माननीयों की भाषा के नमूने आपको समाचार-पत्रों में पढ़ने को मिले होंगे। उदाहरणतयाः-‘‘कुछ दिनों के बाद औरत तो पुरानी हो जाती है’’ (कानपुर में कुछ लेखकों और कवियों के बीच एक मंत्री का संभाषण)। दूसरा जब केजरीवाल के लगातार आरोपों से श्री खुर्शीद आलम आजिज आ गये तो ताव खा गये ‘‘केजरीवाल मेरे संसदीय क्षेत्र में आकर दिखायें, आ तो जायेंगे लेकिन क्या जिन्दा लौट पायेंगे’’।
श्री खुर्शीद आलम के इस संभाषण के बाद सरकार ने सोचा कि आदमी ठीक है इसकी प्रमोशन होनी चाहिये तो उन्हें एक साधारण से मंत्रालय से हटाकर विदेश मंत्री का पद नवाजा गया। यही हाल दूसरे पक्ष का भी है एक सभा में गुजरात के मुख्यमंत्री किसी विशेष व्यक्ति का नाम लिये बिना कह बैठे ‘‘अरे भई उनकी गर्लफ्रैंड तो 50 करोड़ की है’’ बड़ा बायवैला मचा। ऐसे सभी संभाषणों पर प्रतिक्रियायें भी आईं। दो मौकों पर स्त्री संगठनों की ओर से बड़ी भर्तसना की गई। लेकिन जैसा कि सर्वविदित है ऐसी बातों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। हमारे लोकतंत्र की बस यही एक विशेषता है जो इसे दुनिया के सभी लोकतंत्रों से ऊपर रखे हुअे है। यहां बड़े से बड़े घाटाले हो जायें चाहे वी.आई.पी. गैलरी में कत्ल हो जाये पर कहीं कुछ भी नहीं होता। हाँ मुकद्दमे जरूर चलते हैं कुछ दिनों कुत्ता-घसीटी भी होती है, किसी-किसी को कुछ दिन का कायाकष्ट भी होता है पर अंततः कुछ नहीं होता। सब छूट छाट कर बाहर आ जाते हैं। फिर संसद या विधानसभा की शोभा बढ़ाते हैं, मौज मनाते हैं, फिर से बगुले जैसे वस्त्र धारण कर वोट माँगने निकल पड़ते हैं। बस अपनी यही खराब आदत है कि लिखते-लिखते अपने विषय से भटक जाते हैं। हम आपसे कह रहे थे कि संसद का शरदीय सत्र शुरू हो चुका है और इस लिये भी जरूरी है कि इसमें कुछ ऐसे मुद्दों पर चर्चा होगी जो काफी गर्म हैं जैसे खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश। पक्ष कहता है कि यह देश के लिये लाभदायक है और विपक्ष कहता है कि अति नुकसानदायक है। जब इस पर बहस होगी तो चिनगारियां निकलेंगी और आपको ठंड के मौसम में कुछ गर्मी का अहसास होगा।
इस एफ.डी.आई के चक्कर का या इसमें छिपे भेद का तो पता नहीं लेकिन इतना पता है कि जो दीपावली अभी-अभी बीती है वह पूर्णरूप से मेड इन चाइना थी। क्या लडि़यां, क्या पटाखे और यहां तक कि हमारे गणेश लक्ष्मी भी। तमाम विदेशी समानों से बाजारों को पाट दिया गया था और बेचारे देशी कारीगर और कारखानेदार हाथ पर हाथ धरे दीपावली पर मातम मना रहे थे। यह आलम एफ.डी.आई. के आने से पहले का है आने के बाद तो आलम क्या होगा?
खैर अब आप खुद देखिये और संसद के गलियारे में होती गर्म-गर्म बहस का आनन्द लीजिये।


बेचारे गडकरी ही क्या दोनों पार्टियों भा.जा.पा. और काँग्रेस का हर बड़ा नेता बेहद गलत बात कह कर फिर सफाई देता फिरता है कि उसका मतलब तो यह था ही नहीं जो जनता या मीडिया समझ रहा है अर्थात ये दोनो वर्ग अब्बल दर्जे के मूर्ख हैं। नेता जी का जो मतलब होता है उसे नहीं समझते और बेमतलब अपनी समझ का इस्तेमाल  करते हैं और बे वजह नेता की ऐसी की तैसी करने में जुट जाते हैं।
गडकरी जी बेचारे अकेले ऐसे नेता नहीं है जिनकी जुबान ने फिसलकर वे वाक्य कहे हैं जिनके द्वारा सन्त विवेकानन्द की तुलना दाउद से की है। इससे पहले कानपुर की एक काव्यगोष्टी में देश के धुरन्धर कोयला मन्त्री ने मंच से कहा था कि कुछ वर्षों के बाद औरत पुरानी हो जाती है। ऐसे लोग उस रौ में भूल जाते हैं कि उनको जन्म देने वाली भी कोई औरत थी। इसी प्रकार एक और केन्द्रीय मन्त्री संभवतया श्री बेनी प्रसाद वर्मा ने भी कोई अनर्गल टिप्पणी किसी विषय पर की थी। इसी क्रम मे ंआडवानी जी पाकिस्तान जाकर जिन्ना की कबर पर सलाम करते समय कह बैठे थे कि जिन्ना साहब दुनिया के सबसे बड़े सैकुलरवाद के प्रणेता थे। श्री जसवन्त सिंह जी ने भी अपनी एक किताब ऐसे ही किस्सों के साथ लिख मारी। अब चूँकि ये सब बड़े लोग हैं कुछ भी कह सकते हैं, मंच से कुछ भी बोल सकते हैं, कुछ भी लिख सकते हैं और बाद में केवल एक वाक्य से लीपा पोती भी कर सकते हैं कि उनके कहने का मतलब यह नहीं था। 
अभी कुछ दिन पहले हर अखबार में आये दिन छप रहा था कि आज दिल्ली के फलाँ इलाके से कार सवारों ने एक लड़की को उठा लिया, एक औरत को उठा लिया और अपनी हवस का शिकार बना कर किसी सुनसान जगह पर फैंक दिया। तब मैंने एक कविता लिखी थी जिसकी अतिंम पंक्तियाँ थी
‘‘ हर हादसे के बाद
मिलती संात्वना सरकार से
और मिलती इक दिलासा
इस घिनोने काम का
अब शीघ्र ही होगा खुलासा
पर क्या मिलेगा पीडि़ता को न्याय
जहाँ कानून हो लँगड़ा
व्यवस्था एकदम गड़बड़।’’

हमारा  ही तो एक देश है जहाँ सौ प्रतिशत लोकतन्त्र है। इसमें आप कुछ भी बोलो बड़े से बड़ा गबन करो और अपनी डायरी में लिख कर रख लो कि आपका बाल भी बाँका नही होगा। पिछले 65 सालों का इतिहास उठाकर देख लो अगर एक भी दोषी को सजा हुई हो। कानीमोरी, कलमाड़ी या ए.राजा का उदाहरण मत देना। हजारों करोड़ के घोटाले के बाद थोड़े से दिन की नजरबन्दी केवल हलके से कायाकष्ट की परिभाषा में आती है। सजा सुनाते वक्त ‘‘सश्रम कारावास’’ का शब्द इनकी सजाओं के साथ नहीं जुड़ता। फिर जमानत मिलने का मतलब होता है आधा केस खत्म हो जाना।
इस दौरान यदि कोई विहसल बलोअर बीच में आ टपकता है तो उसे ऐसे ढंग से साफ कर दिया जाता है कि उसकी जमात के दूसरे लोग भी सावधान हो जाये और भ्रष्टाचार के विरूद्ध सीटी बजाने से बाज आयें।
लेकिन कहते हैं न कि किसी का भी बीज नाश नही होता। कितने भी सीटी मास्टर मारे जायें लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर कोई न कोई मर्द पैदा हो जाता है। यह सृष्टि का नहीं राजनीति का कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला है।
अब गडकरी जी की चर्चा थोड़े दिन अधिक से अधिक तीन दिन चलेगी फिर सब कुछ ऐसे शान्त हो जायेगा जैसे तालाब में किसी ने पत्थर फैंका ही नही और अल्ला अल्ला खैर सल्ला।
आपके मन में भी एक सवाल उठता होगा कि किया क्या जाये ? आये दिन कोई न कोई गलत बयानी कोई न कोई घोटाला सामने आता रहता है। आवाजें उठती हैं कसमसाहट होती है और जनता में शामिल हर जीव अपने भीतर एक उबाल को दबा कर मँहगाई के खिलाफ युद्ध में रत हो जाता है। पैट्रोल-डीजल, रसोई गैस के बढे़ हुअे दामों पर तो वह सीधा सरकार को कोसता है और आटे, दाल, चावल, सब्जियों के लिये वह मन ही मन कुढ़ता है और किसी न किसी को कोसता भी है। पर कभी चील कौओं के कोसने से भला पशु मरते   हैं ?
वह जानता है कुछ भी नही होने वाला। उसे इसी घुटन में होठों को बन्द कर जीना होगा। यही उसकी नियति है। 





संन्यासी हो गया सवेरा
जोगन पूरी शाम हुई
छली रात झूठे सपनों ने
यूंही उमर तमाम हुई।

मन ने नित्य उज़ाले देखे
अंतरमन की शाला में
कर लें दूर अंधेरे हम भी
सोचा बार—बार मन में
तन ने किये निहोरे मन के
मत बुन जाल व्यर्थ सपनों  के
मयखाने के बाहर तन की
हर कोशिश नाकाम हुई।

मटकी दूध कलारिन लेकर
मयखाने से जब गुज़री
होश में आये पीने वाले
मन में एक कसक उभरी
इक पल उनको लगा कि उसने
आकर मदिरा हाथ छुई
पीने वालों की नज़रों में
बेचारी बदनाम हुई।

यों तो मिलीं हजारों नज़रें
पर न कहीं वह नज़र मिली
चाहा द्वार तुम्हारे पहुंचूं
पर न कहीं वह डगर मिली
तुम कहते याद न हम आये
हम  कहते कब बिसरा पाये
सारी उमर लिखे ख़त इतने
स्याही कलम तमाम हुई।

सोचा अब अंतिम पड़ाव पर
हम भी थोड़ी सी पी लें
मन में सुधियां जाम  हाथ में
अन्त समय जी भर जी लें
जब तक जाम अधर तक आया
साकी तभी संदेशा लाया
ज़ाम आख़िरी पी लो जल्दी
देखो दिशा ​ललाम हुई।




इस मन का पागलपन देखूँ
या जर्जर होता मन देखूँ
देखूँ  सपनों के राजमहल
या यादों के उपवन  देखूँ  ।

इक मीठी याद भुलाने को
क्यों एक उमर कम पड़ती है
क्यों जग से जाने से पहले
हर सांस सांस से लड़ती है
फिर, अंत समय कहती बाती
तम  देखूँ   या ईंधन  देखूँ  ।

धरती के कण—सी उमर मिली
पर्वत—से पाले मंसूबे
अब कुछ तो हम पूरे कर लें
क्यों रहें कशमकश में डूबे
क्यों अंत समय यह प्रश्न रहे
मैं तन  देखूँ   या मन  देखूँ  ।

पल अंतिम आंखें रही खुली
इसलिए कि शायद तुम आओ
वह राग बसा जो रग—रग में
तुम शायद फिर से दुहराओ
अब कहता मन न स्वपन देखूँ
अब देते विदा स्वजन  देखूँ  ।

उन्मीलित पलकें खोज रहीं
जीवन के रंगीं, सपनों को
इस जुटी भीड़ में ढूंड रहीं
कुछ गैरों को, कुछ अपनों को
अब होतीं बन्द पलक देखूँ
या होते सजल नयन  देखूँ  ।




चलो मन अब तुम ऐसे देश
जहाँ पर नयनन बरसे नेह
जहाँ पर सीता—सी हों नारि
जहाँ के नर हों सभी विदेह।

जहाँ पर हो कोयल की कूक
भ्रमर की गुंजन का हो गान
जहाँ पर तितली हों आजा़द
निडर हो पक्षी भरें उड़ान
जहाँ पर हो निर्मल—सा नीर
जहाँ पर हो मुरली की तान
जहाँ पर हो राजा का न्याय
बड़ों का होता हो सम्मान
किसी के आँगन उतरे चाँद
तो वन्दनवार बँधे हर गेह।

जहाँ हो अलगोजे पर गीत
पवन सँग चूनर के रँग सात
जहाँ हो गंगाजल—सा प्यार
जहाँ हो लक्ष्मण जैसा भ्रात
जहाँ हो सागर एक विशाल
तैरते जिस पर हों जलयान
जहाँ हो सागर एक विशाल
तैरते जिस पर हों जलयान
जहाँ की धरती पर हो धर्म
जहाँ हों भरे हुए खलिहान
जहाँ पर मोर पुकारें मेघ
धरा पर बरसाओ तुम मेह।



आ गया फिर से वही दिन
बोझ कन्धों पर उठाये
चल रहा है अनमना—सा
दर्द अन्तस में छुपाये।

बढ़ रहा लेकर विकल मन
ताप से जलता हुआ तन
जा रहीं पगडण्डियॉ सब
पार जंगल के घने वन
तू कहाँ जा कर रूकेगा
प्यास मन की बिन बुझाये।

किस तरह की यह उदासी
नीर बिन ज्यों मीन प्यासी
और थोड़ी दूर चल तू
साँझ बैठी है रुँआसी
कौन उसका हाथ थामे
कौन घूँघट को उठाये।

तू निशा के द्वार जाकर
चैन की कुछ साँस लेगा
स्वपन माया के रचेगा
भोर को फिर चल पड़ेगा
बिन कोई कारण बताये
पीर की गठरी उठाये।

एक सितारा टूटा नभ से जाने कहाँ गया
वह गीतों का हरकारा जाने कहाँ गया

हिंदी गीत के पुरोधा , अद्वितीय गीतकार श्री भारत भूषण यों तो १७ दिसम्बर, २०११ सांय चार बजे इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गए, पर वास्तविकता तो इससे परे है। मैं समझता हूँ जब तक हिंदी गीत विधा जीवित रहेगी तब तक मोजूद रहेंगे हम सबके बीच भाई भारत भूषण
पिछले लगभग चार साल से मैं लगातार अपना पाक्षिक पत्र "दी गौडसन्स टाइम्स " उन्हें भेजता रहा हूँ। जब कभी उनका हाल जानने के लिए फोन करता तो बड़े उत्साह से उत्तर देते, "मैं बिलकुल ठीक हूँ और अब तो और अच्छा महसूस कर रहा हूँ "फिर ढेर सारी बातें पत्र में छपी हुई कविताओं पर होती और फिर मेरे सम्पादकीय क़ी प्रशंसा की जाती । फिर मैं भी दूसरे साहित्यकारों की तरह ही अपनी रचना की बढाई सुनकर मन ही मन बहुत प्रसन्न होता, उन्हें धन्यवाद देता और बातचीत का दी एंड हो जाता ।
लगभग तीन वर्ष पहले उनका एकल कविता पाठ दिल्ली हिंदी भवन में होना था। उससे पहले मैंने उन्हें नहीं देखा था। देखा आगे से उठकर पीछे क़ी और एक कृषकाय शरीर आधे बाजू की कमीज और पेंट पहने चश्मा लगाय आ रहा है। मुझे तो साथ बैठे मित्र ने बताया क़ी यही भारत भूषण जी है। मैं बड़ी तेजी से उनके समीप पहुंचा , प्रणाम करने पर उन्होंने मुझसे पूछा " आप कोन है, माफ़ करना मैं पहचान नहीं पाया" जब मैंने परिचय दिया तो वह मुझसे लिपट गए और गदगद स्वर में बोले " भई लिखने में तो कमाल करते हो, तुमाहरे सम्पादकीय बड़ी मीठी मार मारते है। "
इस मुलाकात के बाद ओपचारिक जान पहचान ने एक मित्रता का रूप ले लिया । मेरे लगातार किये गए वायदे कि मैं मेरठ आपसे मिलने आऊंगा , वायदे ही रह गए। जा ही नहीं पाया और वे हम सबको छोड़कर न जाने किस लोक चले गए, न जाने कोन सी नदी की जल समाधी ले ली ।
मेरे सामने उनके द्वारा भेजी गयी पुस्तक " मेरे चुनिन्दा गीत" पडी है, मुख्य पृष्ट पर भाई भारत स्वयं विराजमान है। यह पुस्तक कुछ माह पहले उन्होंने मेरे पास समीक्षार्थ भेजी थी। समीक्षा अभी तक नहीं लिखी जा सकी और एक तरह से यह अच्छा ही हुआ । मेरे जैसा अल्प बुद्धी वाला व्यक्ति भला कैसे इतने बड़े गीतकार के गीतों की समीक्षा लिख पाता।

बी.एल.गौड़

हमराही