tag:blogger.com,1999:blog-46784490702367478122023-11-15T22:09:21.409-08:00बोलता सन्नाटाबी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.comBlogger70125tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-31139154334003430312013-02-05T01:38:00.000-08:002013-02-05T01:38:03.231-08:00कानून तो कानून है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />कानून की आँखों पर पट्टी तो इसलिये बंधी रहती है कि न्याय करते समय वह भारी और हलके पलड़े को न देख पाये लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि उस पट्टी का अर्थ है कि चाहे कुछ भी होता रहे उसे देखा नहीं जाये। 16 दिसम्बर सन 2012 को बलात्कार काण्ड का सबसे बर्बर अपराधी आगामी 4 जून को सम्भवतया छूट जाये, यह हमारे कानून की एक बानगी है। 16 दिसम्बर 2012 को जो दामिनी रेप काण्ड हुआ उसमें 6 जानवर पकड़े गये मतलब 6 दरिन्दे पकड़े गये जिनमें सब से छोटा-बच्चा, नाबालिग-अबोध जिसने सबसे घिनोना और बर्बता का परिचय उस बलात्कार में दिया, अर्थात उस घिनोने नाटक का सबसे घिनोने पात्र को आने वाली 4 जून को रिहा कर दिया जायेगा और शायद इस महत्वपूर्ण फैसले में एक वाक्य भी जोड़ा जाये और वह हैं ‘‘बाइज्जत’’। अकसर कई दिल दहलाने वाले मुकदमों में जब भी कोई ऐसा किरदार रिहा होता है तो यही लिखा देखा गया है कि फलाँ-फलाँ को ‘बाइज्जत’ बरी किया जाता है। अगर न्यायालय यह ना भी लिखे तो भी काम चल सकता है पर यह तो चलन है न। अब देखें क्या लिखते हैं उसे रिहा करते हुअे माननीय न्यायाधीश जो बेचारे न चाहते हुअे भी वही करते हैं जो कानून कहता है, वकील कहता है या फिर मौकाये वारदात पर मौजूद गवाह कहता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि मौकाये वारदात से बहुत दूर रहने वाला गवाह भी मौकाये वारदात पर मौजूद हो जाता है। चलिये हम तो इस केस विशेष की बात पर आते हैं जिसने दिल्ली के युवा को मथ कर रख दिया। जन्तर मन्तर और इण्डियागेट पर जो हुजूम उमड़कर एकत्र हुआ था इस फैसले से उसके मन पर क्या बीतेगी और क्या बीतेगी उस लड़की के माँ-बाप पर जिनकी बेटी उन दरिन्दों का शिकार बनी और जो बाद में बिना इंसाफ मिले ही बस इंसाफ की एक उम्मीद लेकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई। और मेरी निजी राय में उसका मर जाना ही अच्छा रहा क्योंकि यदि वह जीवित रहती और नाबालिग को छुट्टा घूमता देखती तो उस पर क्या बीतती तब तो शायद वह प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा मरती। <br /> नाबालिग और बालिग की सीमा पर जरा गौर कीजिये। नाबालिग यदि 17 साल 29 दिन का है और वह एक जघन्य रेप जैसा घिनोना कार्य करता है तो अधिकतम सजा तीन साल अर्थात तीन साल के बाद उसे मौका दिया जाता है सुधरने का। और इस प्रकार के मामले में जो तथ्य सामने आये हैं वे दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष नाबालिगों द्वारा किये गये दुष्कर्म के मामलों में पिछले 11 सालों में लगभग 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।<br /> स्कूल के रजिस्टर में दर्ज जन्म की तारीख की वही होती है जो बच्चे के पिता द्वारा बोलकर लिखवाई जाती है। महानगरों की बात को यदि छोड़ दिया जाये तो कितने लोगों के पास किसी नगर निगम का या कमेटी का या ग्राम पंचायत का जारी किया हुआ प्रमाण पत्र होता है तो क्या इस केस में दिल्ली पुलिस का यह कहना जायज नहीं कि इस बर्बर नाबालिगा की हड्डियों का टेस्ट करवाये जाये। परन्तु पता नहीं क्यों जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड कहता है कि इस नाबालिग के हड्डी टेस्ट की कोई आवश्यकता ही नहीं है। आने वाली 4 जून को जिस दिन वह रात रात में बालिग हो जायेगा तो संभवतया छूट कर बिना कोई सजा पाये अपने घर जायेगा । वह फिर से अपनी कक्षा में जाकर अपने साथियों को जो कुछ उसने किया है सुनायेगा और हो सकता है कि बजाय सुधरने को वह कोई मैन ईटर ही बन जाये और फिर से वैसे ही कार्यों में लिप्त हो जाये। <br />अगर दूर की सोचें तो यह भी हो सकता है कि कल को न जाने कितने ऐसे नाबालिग ऐसे घिनौने करतब करके खड़े हो जायंे यही सोच कर की हम तो नाबालिग हैं और बचपने में किए गये जघन्य अपराध को तो कानून माफ कर देता है। ऐसे में यह अपराध घटने की बजाय और बढ़ सकते हैं। अगर कानून 17 साल 29 दिन के व्यक्ति को नाबालिग मानती है यानी कानून की नजर में वह एक मासूम बच्चा होता है जो नासमझी के चलते वह अपराध कर बैठा लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि बस 17 साल 30 दिन का व्यक्ति अर्थात 18 साल का व्यक्ति केवल एक ही दिन में कानून की नजर में समझदार कैसे हो जाता है। अगर देखा जाए तो उस नाबालिग का दिमाग तो बाकी पांचों अपराधियों से भी ज्यादा तेज तर्रार चला तभी तो उसने सबूतों को मिटाने के लिए कितने घिनोने कामों को अंजाम दिया। इसलिए बालिग और नाबालिग दिमाग के विकास पर निर्भर होना चाहिए न कि उम्र पर। कितने व्यस्क ऐसे होते हैं जिनका दिमागी विकास बहुत कम होता है लेकिन उनकी उम्र काफी होती है। <br /> पता नहीं क्यों कानून बनाने वालों के कानों पर जूँ नहीं रैंगती कि कानून की किताबों में दर्ज इस तरह के अनेक कानूनों में बदलाव की पहल की जाये। इसके पीछे हमें तो यही मानसिकता नज़र आती है कि जैसा चल रहा है ठीक है बेवजह जहमत क्यों मौल ली जाये। और फिर जो कुछ भी बीत रहा है वह तो आम जनता के साथ बीत रहा है वे सब तो अपवाद की श्रेणी में आते हैं। उनके लिये तो इस प्रकार के हादसे केवल अपनी राजनीति को चमकाने के काम आते हैं इससे अधिक उनके लिये ऐसी घटनाओं का कोई महत्व नहीं होता। <br /> यह सब दर्शाता है कि हमारे देश को चलाने वाले कितने संवेदनहीन होते जा रहे हैं। और साथ ही देश के युवाओं का दिल-दिमाग किस तरह इस सदियों पुरानी व्यवस्था के प्रति क्रोध से लबालब होता जा रहा है। जन्तर-मन्तर या इण्डिया गेट पर लाखों की संख्या में जमा हुए हाथों में जलती मौमबत्तियां लिये जिन लोगों ने वर्तमान व्यवस्था के प्रति जो एक अहिंसक प्रदर्शन किया वह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। यदि यह ढर्रा इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली के युवाओं के साथ-साथ सारे भारत के युवा और विद्यार्थी सड़कों पर एक साथ आ जायेंगे।<br />
<b>बी.एल.गौड़</b><br /><br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-45401944002156017332013-01-18T20:25:00.002-08:002013-01-18T20:25:55.043-08:00जागे तो सही<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />एक पत्नि झकझोर रही थी गहरी नींद में खर्राटे लेते हुअे पति को। पति जी थे कि आँखें ही नहीं खोल रहे थे। बड़े प्रयास के बाद जगे, तो पत्नि कुछ आश्वस्त हुई और उन आशंकाओं के भंवर जाल से बाहर आई जो उसे घोर चिंताओं में जकड़े हुई थीं। तरह-तरह के विचार उसके मन में आ जा रहे थेः-‘‘न जगे तो क्या होगा, घर कैसे चलेगा, कैसे हमें कोई बचायेगा उन लुच्चे लफंगों से जो इनके जिन्दा और जाग्रत रहते हुअे भी छेड़-छाड़ से बाज नहीं आते।‘‘ खैर वे जगे तो पत्नि ने पहला प्रश्न दागाः-क्या हुआ था जो इतनी गहरी नींद में चले गये ? पति थोड़ा आश्वस्त होता हुआ दाँयें गाल पर हाथ धरकर बताने लगा कि कल हुअे पड़ौसी से झगड़े में कैसे उसने गाल पर घूँसा मारा जिससे एक हिलती हुई दाढ़ निकल गई और तब से ही दर्द से बेहाल था। सो मैंने नींद की कई गोलियां ली और सो गया।<br />पत्नि सोच में पड़ गई कि वह क्या उम्मीद करे ऐसे पति से जो पड़ौसी से गाल पर मुक्का खाकर बजाय बदला लेने के नींद की गोलियों का सहारा लेता है। सोचने लगी देश की भी हालत भी तो आज इससे कुछ अधिक बेहतर नहीं है।<br />दुश्मन देश के कुछ उचक्के टाइप के सैनिक आये और हमारे दो वीर सपूतों के सिर काट कर ले गये। हमारे सेना के जवानों का खून खौलने लगा। देश के हर नागरिक का मन दुख और आक्रोश से भर गया। और बड़ी कातर नजर से वह सरकार की ओर देखने लगा। इन्तजार करने लगा सरकार की प्रतिक्रिया की इस जघन्य घटना के प्रति। कई दिन के बाद सरकार ने सोचा कि कुछ तो प्रतिक्रिया उसे देनी ही चाहिये नही तो आने वाले चुनाव में हालत पतली हो सकती है और संभव है कि राजसुख से हमेशा के लिये विदाई हो जाये। तो कुछ मन्त्रियों न कुछ-कुछ बोलना शुरू किया ‘‘हम पाकिस्तान पर दबाव बनायेंगे, हम विरोध जतायेंगे, हम सरहद पर फ्लैग मार्च करेंगे, हम सबूत पेश करेंगे, आदि-आदि।’’ पर किसी ने भी यह नहीं कहा कि हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। अगर हमारे दो सैनिकों के सिर कटे हैं तो हम उसके दस सैनिकों के सिर गोलियों से उड़ा देंगे।<br />किसी ठोस प्रक्रिया के अभाव में देश के नागरिकों में क्रोध बढ़ने लगा तो हमारे प्रधानमन्त्री जी की नींद खुली या किसी ने उनके कान में कहा कि अब उठ जाओ सोते रहने से बात बिगड़ेगी, तो वे उठे और उन्होंने अपनी सीली हुई आवाज में एक जोश भरी बात कही कि पाकिस्तान को अपनी गलती मान लेनी चाहिये, और उसे अपनी गलती माननी होगी। और नहीं मानने पर परिणाम अच्छे नहीं होंगे और आपसी सम्बन्ध जिन्हें दोनों देशों के बीच मधुरता पैदा करने वाला माना जा रहा था उन्हें बड़ा धक्का लगेगा। और निश्चित रूप में संबन्ध पहले जैसे नहीं रहेंगे। <br />जब प्रधानमन्त्री जी ऐसा बोले तो दूसरे मन्त्रियों ने भी कुछ-कुछ बोलना शुरू किया और अब सेना प्रमुख भी जोश में बोले कि हमें दुश्मन की ऐसी करतूतों का जवाब देना आता है। अब हमारे सैनिक अब शांत नहीं रहेंगे बल्कि ऐसी करतूतों का तुरन्त जवाब देंगे।<br />हम तो कहते हैं देर आये दुरूस्त आये। अरे जागे तो सही देश की 125 करोड़ जनता के प्रधानमन्त्री, भले ही आठ दिन बाद ही सही, भले ही मुख्यमंत्री दिल्ली श्रीमति शीला दीक्षित के गलती से निकले ब्यान के बाद ही सही।<br />देखना ये है कि अब कार्यवाही क्या होती है। वैसे हमारे देश की एक परिपाटी यह भी है कि बड़ी से बड़ी घटना/दुर्घटना की मौत खुदबखुद कुछ समय बाद हो जाती है। क्योंकि इस विकासशील देश की जनता के पास इतना समय नहीं कि सई साँझ के मरे हुअे के लिये रातभर रोती रहे। सरकार को भी इसी बात का इन्तजार रहता है कि अमुक घटना, दुर्घटना या किसी बड़े घोटाले से उपजा तूफान कब शान्त होता है, कब लोग अपने-अपने काम पर लोटते हैं और एक अफसोस मन में लिये दुखी मन से अगली घटना घटने का इन्तजार करते हैं।<br />हम सबको मिलकर यह प्रयास करना चाहिये कि ऐसे मौकों पर जगी हुई जनता को सोने नहीं देना चाहिये। अत्याचार के विरूद्ध उपजे जोश को शान्त नहीं होने देना चाहिये, किसी न किसी रूप में जोश की वह लौ जलती रहनी चाहिये जिसकी रोशनी सोई हुई सरकार को जगाती है। इस रोशनी की मशाल को जगाए रखने की ताकत अब केवल नौजवानों के हाथों में है और आने वाले समय में देश की बागडोर भी देशके लोग उन्हीें के हाथों में देखना चाहते हैं। साथ ही वे आज के नेताओं का दुश्मन द्वारा किये गये ऐसे बर्बर कृत्य के लिये गिड़गिड़ाता हुआ विरोध नहीं देखना चाहते।<br /><br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-73566551037239692372013-01-09T01:45:00.002-08:002013-01-09T01:45:41.143-08:00क्या सुनामी शांत है ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />जी हाँ अभी 10-15 दिन पहले दिल्ली में एक सुनामी आई थी जिसने दस जनपथ, जन्तर मन्तर, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली की मुख्यमन्त्री का आवास, गृह मन्त्री का निवास और न जाने किस किस भवन की सीमाओं पर दस्तक दी थी। उसे चेतावनी दी थी कि महोदय ! आप कृपया नींद से जगें और कहा था <br />‘‘ ऐसे कब तक काम चलेगा पूछ रहा सैलाब’’। <br />इस भीड़ की सुनामी के सभी लोग उस मेडिकल छात्रा की सपोर्ट में थे और न्याय की माँग कर रहे थे कि जिन गुण्डांे ने उसके साथ दुराचार कर उसे मौत के मुहाने पर पहुँचा दिया था और वह जीवन और मौत के बीच झूल रही थी उन गुण्डों को फाँसी पर लटकाया जाये। <br /> तो दोस्तो ! जिस सुनामी की मैं बात कर रहा हूँ यह सुनामी थी स्कूल के बच्चों की, काॅलेज के लड़के लड़कियों की, विश्वविद्यालय के उन प्रबुद्ध छात्र-छात्राओं की जो हमारे देश के भविष्य हैं। और इन सब के साथ आये थे दिल्ली में कार्यरत युवक और युवतियाँ। दूसरे और तीसरे दिन से इसमें शामिल होने लगे थे शहर के प्रौढ़ और बुजुर्ग और घर की कमकाजी महिलायें । उसके बाद वे अभियन्ता और अधिवक्ता भी जिनके जमीर ने उन्हें ललकारा था कि उठो और इस सिस्टम के विरूद्ध लड़ रही भीड़ का साथ दो, मूक दर्शक बन कर मत रहो। <br /> मेरे जैसे 76 वर्षीय कुछ नाकारा लोग भी इस सुनामी को देखने भर गये और शायद सभी ने वहाँ जाकर यह निर्णय लिया हो कि चलो हम यदि शरीर से कुछ नहीं कर सकते तो अपनी कलम पर धार चढ़ायेंग,े उसे तलवार मे तबदील करेंगे और इस भीड़ का साझीदार बनेगा हमारा लेखन। यही सब सोचकर और भीड़ का आँकलन कर कि इस भीड़ में कितने मवाली हैं कितने गुण्डे हैं, मैं चुपचाप अपने घर लौट आया। और जिन्दगी में जो गुण्डे मवाली मैंने देखे हैं उनमें से एक भी उस भीड़ में नज़र नहीं आया, नजर आये तो केवल वे मासूम चेहरे जो तमतमाये हुअे थे एक क्रोध से जो माँग रहे थे न्याय की इस सड़ी हुई व्यवस्था से जो याद दिलाती है एक पुराने नाटक की ‘‘ अंधेर नगरी चैपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा’’ कुछ इस तरह का नाटक था जिसमें राजा ने एक अपराधी को फाँसी देने के लिये एक फन्दा बनवाया था लेकिन उसके गले में फिट न होने पर उसने राजआज्ञा जारी कर दी थी कि अब यह फन्दा उस गले में डाल दिया जाये जिसमें यह फिट आ जाये। मित्रो ! 27 दिसम्बर को यह सुनामी कुछ धीमी पड़ी और अपने मूल स्त्रोत में समा गई क्योंकि उस पीडि़त लड़की को इस दिन बेहतर इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया था। <br /><br />इस सुनामी ने हमारे हुकुमरानों को, हमारी कार्य कारिणी को, हम पर राज करने वाले राजाओं को, मेरा मतलब नेताओ को कुछ सोचने पर मजबूर किया है। अब सुनामी यह देख रही है कि हमारी यह दस्तक क्या रंग लायेगी। क्या राजपथ पर की गई घोषणायें कानून का रूप लेंगी ? क्या अंग्रेजो के जमाने की मानसिकता लिये हुकुमरानों की सेाच बदलेगी ? और अगर ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप में यह सुनामी फिर लौटेगी। अभी तो एक बाढ़ की शक्ल में आई थी लेकिन यह दोबारा, तिब़ारा जब आयेगी तो सचमुच में उस सुनामी की याद दिलायेगी जिसमें लाखों लोग लापता हो गये थे और बड़े-बड़े ऊँचे आलीशान मकान जमींदोज हो गये थे। फिर उस सुनामी को शायद ही कोई रोक पाये। और लिखते-लिखते यह खबर आई कि आज दरिन्दगी की शिकार वह पीडि़त लड़की यह दुनिया छोड़ गई। उसकी मौत की खबर ने उस मानुषी सुनामी में फिर से भूचाल ला दिया है। तीन दिन राजधानी के दस मेट्रो स्टेशन बंद रहे , रास्तों पर पुलिस का पहरा है। आनन-फानन में सरकार ने फुर्ती दिखाते हुए लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया है, अबव ह राख के एक ढेर में तबदील हो गई है। लेकिन इस राख ने भी एक ऐसा तिलंगा छोड़ दिया है जो न केवल उस लड़की को न्याय दिलाएगा बल्कि संपूर्ण महिला वर्ग के लिए भी कुछ न कुछ अच्छे कदम जरूर उठवायेगा।<br /> जो कुछ भी अब तक हो चुका है वह अब अंगार पर जमी राख की तह में छुप गया है। इस सब में एक दुखद घटना यह घटी कि एक सिपाही की मौत हो गई। और कारण यह बताया जा रहा है कि सुनामी की भीड़ में जो असमाजिक तत्व शामिल हो गये थे उन्होंने देश के इस वीर सिपाही को निर्दयता से मार डाला। यह कह रहा है उसका अपना महकमा और पुलिस के आला अफ़सर जिन्होंने बड़ी तीव्रता से इस काण्ड को अन्जाम देने वाले आठ आदमियों को पकड़ भी लिया है। ईश्वर करे पकड़े गये लोग सही हांे पलान्ट किये गये नहीं, और यदि वे निर्दोष हैं तो ईश्वर उनकी मदद करे कि वे छूट जायें। <br /> जो सिपाही इस आन्दोलन का शिकार हुआ वह हमसे अलग नही था। वह उसी समाज की एक इकाई था जिसके हम अंग हैं। वह भी हममें से ही किसी न किसी का सगा था। दोषियों को सजा अवश्य मिले। लेकिन इसमें कितने विरोधाभास हैं। चश्मदीद गवाह कर रहा है कि मैंने उन्हें गिरते हुअे तब देख जब वे भाग रहे थे, डाक्टर कहता है कि अन्दरूनी या बाहरी चोट के कहीं निशान नहीं थे लेकिन पुलिस कहती है कि थेे अब तो न्यायालय ही अपनी तराजू पर तोल कर बतायेगा कि सत्य क्या है। यह अलग बात है कि कालान्तर में आज के साक्ष्य समय की गर्द में विलीन हो जायें और न्याय उसी प्रकार का हो जैसा होता आया है। <br /> न्याय की बानगी आप वर्षों से देखते आये हैं। जेलें भरी पड़ी हैं ऐसे कैदियों से जो वर्षों से सजा काट रहे हैं जिन्हें महीनों की सजा होनी थी उनके किये गये जुर्म की। न तो जरूरत के मुताबित जज हैं न अदालते हैं। लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हैं और सरकार के पास इस फालतू काम के लिये न पैसा है न कोई नरेगा की तरह योजना ही। सब राज करेगें, अपना अपना कार्यकाल पूरा करेंगे और अपने उस सरकारी घर में जाकर विश्राम करेंगे जो सरकार उन्हें इस प्रकार से देश के लिये की गई सेवा के उपरान्त इनाम बतौर देती है।<br />अब तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। हरियाणा की खापों के चैधरी कह रहे हैं कि ऐसे दरिंदों को सजा दी जाए पर फंासी की नहीं। सरकार पेशोपेश में है, दुआ कर रही है भगवान से कि भगवान! बस एक बार इस संकट से उबर जाए, फिर की फिर देखेंगे।<br />देखिए और इंतजार कीजिए कि क्या-क्या उपाय कर पाती है नारी जाति की अस्मिता को बचाने के लिए हमारी सरकार।<br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-34914242937527685452012-12-18T01:58:00.002-08:002012-12-18T01:58:27.955-08:00भड़क-भड़क में अन्तर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
‘पदोन्नति में भी आरक्षण होना चाहिय’ इस मुद्दे को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती बुद्धवार 12 दिसम्बर को राज्यसभा में भड़क गईं। अब यह जो भड़कना है किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी हो सकता है। यह निर्भर करता है कि व्यक्ति विशेष में कितना ज्वलनशील विचार जोर मार रहा है। जब व्यक्ति के अन्तस में विचारों की ज्वाला धधक रही होगी तभी वह अपनी वाणीं के द्वारा भड़क सकता है अन्यथा नहीं।<br />मायावती जी का भड़कना स्वाभाविक है। जिस वोट बैंक के सहारे वे बार-बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचती हैं उसके हितों का ख्याल रखना और वह भी आवश्यकता से अधिक उनकी अपनी जरूरत है।<br />वैसे न्यायिक दृष्टि से देखा जाये तो प्राकृतिक न्याय तो यह कहता है कि जब एक बार भर्ती के समय आरक्षण का लाभ किसी व्यक्ति को दे दिया गया तो फिर तो सभी एक ही प्लेटफार्म पर आ गये। उसके बाद तो अपनी-अपनी काबलियत के हिसाब से पदोन्नति होनी चाहिये। लेकिन ऐसा होता नहीं है। <br />अभी तक हमें तो यही बात समझ में नहीं आई कि पदोन्नति में आरक्षण में नया क्या है। लगभग 30 साल तक मैं स्वयं ही रेल विभाग में देखता रहा हूँ कि जब भी पदोन्नति की बात आई तो वहाँ पर यह आरक्षण सदैव ही मौजूद था। हमारे साथ के और हमसे जूनियर लोग कोटे के तहत अर्थात पदोन्नति में आरक्षण कोटे के तहत हमसे कहीं आगे निकल कर हमारे ही अधिकारी बन गये, तो यह कोटा तो वहाँ बहुत पहले से मौजूद है फिर इसमें नया क्या है।<br />खैर छोडि़ये हो सकता है हमारी समझ का ही फेर हो, मुद्दा तो यह है कि मायावती जी राज्यसभा के सभापति श्री आमिद अंसारी पर भड़क गईं और जोश में आकर वो अपने सभी सांसदों के साथ वैल में पहुँच गईं। उनकी भड़क से जो चिंगारियाँ निकलीं उनसे बेचारे सभापति जी असहज हो गये बल्कि यों कहिये कि आहत हो गये और दुखी होकर अपने कक्ष में चले गये बिलकुल उसी प्रकार जिस प्रकार केकई अपने कोप भवन में चली गईं थीं। अन्तर केवल इतना था कि केकई रूंठ कर गईं थीं और सभापति जी दुखी होकर। <br />उसके बाद उनका दुख बाँटने के लिये कई सांसद उनके कक्ष में गये और इस दुखद घटना पर अफसोस जताया। मायावती जी की यह भड़कने वाली बात राज्यसभा की कार्यवाही में से बाहर निकाल दी गई। प्रधानमंत्री जी ने अपना संदेश भेजकर सभापति जी के घायल मन पर मरहम लगाया।<br />सुनते हैं कि बाद में मायावती जी कुछ नरम पड़ गईं जिससे सभापति जी को बड़ी राहत मिली और वे बड़े खुश हुअे और नार्मल होकर उन्होंने राज्यसभा के स्थगन समय के पश्चात कार्यवाही को फिर से सुचारू रूप से शुरू किया गया।<br />सुना है इसी बीच श्री मुलायम सिंह भी भड़के और उन्होंने कहा कि इस प्रकार हर बार प्रमोशन में आरक्षण रखने से तो सारी व्यवस्था ही खराब हो जायेगी और हमारे जनाधार का क्या होगा।<br />वे पूर्व की तरह राज्यसभा से वाक-आउट कर गये। औपचारिकतावश प्रधानमंत्री जी ने उन्हें मनाने के लिये अपने कई दूत भेजे। लेकिन परिणाम शून्य ही रहा अर्थात् वे वाक-आउट के बाद वाक-इन नहीं हुअे। सरकार को मौका मिला जाँचने का कि भारी कौन है।<br />तो मायावती जी की भड़क ही भारी निकली और उनकी ही बात मानी गईं। यह बिल ‘‘हर प्रमोशन में आरक्षण’’ प्रेषित होना बाकी है बल्कि इसे पास हुआ सा ही समझो। जिन दूसरी पार्टियों ने अपना गणित लगा लिया है कि इस बिल से अपने को क्या फायदा होगा वे इस बिल का सपोर्ट कर रही हैं। मुलायम सिंह जी के इस बिल के विरोध में जो तेवर, जो भड़क दृष्टिगोचर हो रही है वह इस कारण है कि इस बिल के कानून बन जाने पर जो भी लाभ होगा वह केवल एस.सी./एस.टी. को होगा पिछड़ों को नहीं और जब पिछड़ों को इससे कोई लाभ नही ंतो मुलायम सिंह जी क्यों मुलायम पड़ें।<br />अन्त विजय ही तो असली विजय होती है। नतीजा यह निकला कि मायावती जी की भड़क ने मुलायम सिंह जी की भड़क को पटकनी दे दी।<br />हम सबको इस ‘भड़क’ का शौर्ट टर्म कोर्स अवश्य करना चाहिये आजकल इसी से मुद्दे सुलझते हैं।<br /><br /><b>श्री बी.एल.गौड़</b><br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-16867720640456590252012-12-18T01:55:00.000-08:002012-12-18T01:55:13.765-08:00सेवार्थियों का सम्मान से बढ़ता है मनोबल : अग्रवाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8EDmrETobq7mj3oxE6kpUqO9Wy-lmc-DDVyBYflrtT-_2-KqQbeTxBo1-yDXY7aoRt6a5IYSjqsS2nSfnjtddEHwEVuZX7ZfuC3qRUnXHuD-d2w07jCaqqeHNiQCYc0do5-r94eHDfJ4U/s1600/bl+gaur+ko+sammmnit++karte+hua++jp+aggwal+presind+dpcc.jpg.tif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="228" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8EDmrETobq7mj3oxE6kpUqO9Wy-lmc-DDVyBYflrtT-_2-KqQbeTxBo1-yDXY7aoRt6a5IYSjqsS2nSfnjtddEHwEVuZX7ZfuC3qRUnXHuD-d2w07jCaqqeHNiQCYc0do5-r94eHDfJ4U/s320/bl+gaur+ko+sammmnit++karte+hua++jp+aggwal+presind+dpcc.jpg.tif" width="320" /></a></div>
<br />हम तेजी से प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन अपनी जरूरतों के साथ-साथ समाज में सक्रिय योगदान देने वाले लोगों को जब सम्मानित किया जाता है तो उनका मनोबल बढ़ता है और अन्य लोग भी अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित होते हैं। यह बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद जय प्रकाश अग्रवाल ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (आइसीसीआर) स्थित आजाद भवन में कही। मौका था सामाजिक एवं साहित्यिक संस्था उद््भव द्वारा आयोजित सांस्कृतिक सम्मान का। <br />कार्यक्रम में उद्भव शिखर सम्मान से आइआरएस संगीता गुप्ता, साहित्यकार बीएल गौड़, कानपुर के ज्योतिषाचार्य रत्नाकर शुक्ल, महाराष्ट्र के समाजसेवी संभाजी एन. गित्ते, सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता चंद्रशेखर आश्री के अलावा उद्भव विशिष्ट सम्मान से शिक्षा अधिकारी एम.एल.अम्भोरे, देहरादून से आए साहित्यकार रूपनारायण सोनकर, शिक्षाविद् वासुदेव पंत को सम्मानित किया गया। उद्भव मानव सेवा सम्मान से समाज सेवी प्रवीण धींगरा, रामबिलास अग्रवाल, अनिल वर्मा, साहित्यकार डा. लालित्य ललित, शिक्षाविद् स्वाति पूर्णानंद को सम्मानित किया गया। मंच का संचालन उद्भव के महासचिव और साहित्यकार डा. विवेक गौतम ने किया। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में सलाहकार हिंदी आइसीसीआर अजय गुप्ता, कवितायन के अध्यक्ष वी. शेखर, शिक्षाविद् अशोक कुमार पांडेय, भारत भूषण गुप्ता, वरिष्ठ साहित्यकार डा. अरुण प्रकाश ढौंडियाल मौजूद थे। इनके अलावा शिक्षाविद सीपीएस वर्मा, समाजसेवी एस.एल.चौरसिया, हरिराम द्विवेदी, दिनेश उप्रेती और रामचंद्र बडोनी का विशेष योगदान रहा। </div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-90430463398808577612012-12-07T21:39:00.003-08:002012-12-07T21:39:57.939-08:00अमर प्रेम<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />सूरज अब तू अपने घर जा<br />साँझ लगी ढलने<br />मैं भी धीरे-धीरे पहँुचँू<br />घर आँगन अपने। <br /><br />सुबह सवेरे फिर आ जाना<br />उसी ठिकाने पर<br />पंक्षी जब नीड़ों से निकलें<br />फैला अपने पर<br />तब हम दोनों साथ चलेंगे<br />फिर संध्या की ओर<br />तुम अस्ताचल ओर सरकना<br />मैं नदियों के छोर<br />घर में बाट जोहते होंगे<br />कुछ मेरे अपने।<br /><br />मन-भावन का मिलना जग में<br />केवल सपना है<br />अमर प्रेमी भी इस दुनिया में<br />एक कल्पना है<br />सारी रात बदल कर करवट<br />जब हमने काटी<br />ऐसे कब तक काम चलेगा<br />पूछे यह माटी<br />बुद्धि कहे मन से सुन पागल<br />देख न तू सपने।<br /><br />तू अविनाशी अजर अमर तो<br />मैं भी उसका अंश<br />तुझको व्याधि नहीं छू पाती<br />पर मैं सहता दंश<br />सबसे बड़ी पीर है मेरी <br />मिला ना कोई मीत<br />मन भी कितना मुरख निकला<br />पग-पग ढँूडे प्रीति<br />रहा दौड़ता हिरन सरीखा<br />नहीं मिले झरने। <br />
<br />
<br />
<br /><b>बी.एल. गौड़</b><br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-57494272230770675062012-12-07T21:25:00.000-08:002012-12-07T21:25:04.975-08:00शरदीय संसद सत्र<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />जैसे ही सर्दी की शरूआत हुई तो माननीयों के मन में हूक उठी कि क्यों न हम अपनी सबसे बड़ी पजायत का भी एक सत्र बुला लें। वैसे तो इसके लिये सरकारी सांसदों की अर्थात् सरकार की मंशा ही काफी होती है लेकिन औपचारिकतावश विपक्ष से भी राय कर ली गई। अकसर देखा जाता है कि संसद के पुस्तकालय में अर्थात लगभग निःशुल्क चलती संसद कैंटीन में वे सांसद एक ही मेज पर काफी पीते मिल जाते हैं जो अभी-अभी ब्रेक से पहले एक-दूसरे के गिरेबान तक हाथ बढ़ा रहे थे, आस्तीनें चढ़ा रहे थे और ऐसी कठोर भाषा का प्रयोग कर रहे थे कि यदि लखनऊ के नवाबों का जमाना होता तो आधे नवाब और आधी बेगमें बेहोश हो जातीं।<br />लखनऊ का एक किस्सा यहाँ बयान करने से विषयान्तर नहीं होगा, वह कुछ इस प्रकार हैः-दिल्ली का एक व्यापारी किसी कार्य से लखनऊ गया। इक्केवाले से मुखातिब हुआ ‘‘ओ इक्केवाले! हजरतगंज चलेगा’’ इक्केवाल ने उसकी बात को कान ही नहीं दिया। फिर दूसरे से उसने इसी टोन में बात की लेकिन उसने भी उससे बात नहीं की। तब उसने टोन बदली ‘‘भय्या इक्केवाले! क्या हजरत गंज तक चलोगे’’ इस पर इक्केवाले ने कहा ‘‘भय्या! पढ़े-लिखे लगते हो, किसी को भी थोड़ी तहज़ीब और प्यार से ही पुकारा करो। हम तो खैर वक्त के मारे हैं चल ही पड़ते लेकिन हमारा घोड़ा हमसे ज्यादा तमीजदार है यह बिलकुल भी तैयार नहीं होता’’ इस जरा सी बात ने उस व्यापारी को थोड़ी तमीज जरूर सिखा दी होगी।<br />लेकिन आप ऐसी कोई उम्मीद संसद के गलियारे से न पालें। अभी कुछ दिन पहले ही कुछ माननीयों की भाषा के नमूने आपको समाचार-पत्रों में पढ़ने को मिले होंगे। उदाहरणतयाः-‘‘कुछ दिनों के बाद औरत तो पुरानी हो जाती है’’ (कानपुर में कुछ लेखकों और कवियों के बीच एक मंत्री का संभाषण)। दूसरा जब केजरीवाल के लगातार आरोपों से श्री खुर्शीद आलम आजिज आ गये तो ताव खा गये ‘‘केजरीवाल मेरे संसदीय क्षेत्र में आकर दिखायें, आ तो जायेंगे लेकिन क्या जिन्दा लौट पायेंगे’’।<br />श्री खुर्शीद आलम के इस संभाषण के बाद सरकार ने सोचा कि आदमी ठीक है इसकी प्रमोशन होनी चाहिये तो उन्हें एक साधारण से मंत्रालय से हटाकर विदेश मंत्री का पद नवाजा गया। यही हाल दूसरे पक्ष का भी है एक सभा में गुजरात के मुख्यमंत्री किसी विशेष व्यक्ति का नाम लिये बिना कह बैठे ‘‘अरे भई उनकी गर्लफ्रैंड तो 50 करोड़ की है’’ बड़ा बायवैला मचा। ऐसे सभी संभाषणों पर प्रतिक्रियायें भी आईं। दो मौकों पर स्त्री संगठनों की ओर से बड़ी भर्तसना की गई। लेकिन जैसा कि सर्वविदित है ऐसी बातों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। हमारे लोकतंत्र की बस यही एक विशेषता है जो इसे दुनिया के सभी लोकतंत्रों से ऊपर रखे हुअे है। यहां बड़े से बड़े घाटाले हो जायें चाहे वी.आई.पी. गैलरी में कत्ल हो जाये पर कहीं कुछ भी नहीं होता। हाँ मुकद्दमे जरूर चलते हैं कुछ दिनों कुत्ता-घसीटी भी होती है, किसी-किसी को कुछ दिन का कायाकष्ट भी होता है पर अंततः कुछ नहीं होता। सब छूट छाट कर बाहर आ जाते हैं। फिर संसद या विधानसभा की शोभा बढ़ाते हैं, मौज मनाते हैं, फिर से बगुले जैसे वस्त्र धारण कर वोट माँगने निकल पड़ते हैं। बस अपनी यही खराब आदत है कि लिखते-लिखते अपने विषय से भटक जाते हैं। हम आपसे कह रहे थे कि संसद का शरदीय सत्र शुरू हो चुका है और इस लिये भी जरूरी है कि इसमें कुछ ऐसे मुद्दों पर चर्चा होगी जो काफी गर्म हैं जैसे खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश। पक्ष कहता है कि यह देश के लिये लाभदायक है और विपक्ष कहता है कि अति नुकसानदायक है। जब इस पर बहस होगी तो चिनगारियां निकलेंगी और आपको ठंड के मौसम में कुछ गर्मी का अहसास होगा। <br />इस एफ.डी.आई के चक्कर का या इसमें छिपे भेद का तो पता नहीं लेकिन इतना पता है कि जो दीपावली अभी-अभी बीती है वह पूर्णरूप से मेड इन चाइना थी। क्या लडि़यां, क्या पटाखे और यहां तक कि हमारे गणेश लक्ष्मी भी। तमाम विदेशी समानों से बाजारों को पाट दिया गया था और बेचारे देशी कारीगर और कारखानेदार हाथ पर हाथ धरे दीपावली पर मातम मना रहे थे। यह आलम एफ.डी.आई. के आने से पहले का है आने के बाद तो आलम क्या होगा? <br />खैर अब आप खुद देखिये और संसद के गलियारे में होती गर्म-गर्म बहस का आनन्द लीजिये।<br /><br /><br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-47061413106114226292012-11-21T23:39:00.005-08:002012-11-21T23:39:45.785-08:00‘‘मेरा मतलब यह नहीं था’’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बेचारे गडकरी ही क्या दोनों पार्टियों भा.जा.पा. और काँग्रेस का हर बड़ा नेता बेहद गलत बात कह कर फिर सफाई देता फिरता है कि उसका मतलब तो यह था ही नहीं जो जनता या मीडिया समझ रहा है अर्थात ये दोनो वर्ग अब्बल दर्जे के मूर्ख हैं। नेता जी का जो मतलब होता है उसे नहीं समझते और बेमतलब अपनी समझ का इस्तेमाल करते हैं और बे वजह नेता की ऐसी की तैसी करने में जुट जाते हैं। <br />गडकरी जी बेचारे अकेले ऐसे नेता नहीं है जिनकी जुबान ने फिसलकर वे वाक्य कहे हैं जिनके द्वारा सन्त विवेकानन्द की तुलना दाउद से की है। इससे पहले कानपुर की एक काव्यगोष्टी में देश के धुरन्धर कोयला मन्त्री ने मंच से कहा था कि कुछ वर्षों के बाद औरत पुरानी हो जाती है। ऐसे लोग उस रौ में भूल जाते हैं कि उनको जन्म देने वाली भी कोई औरत थी। इसी प्रकार एक और केन्द्रीय मन्त्री संभवतया श्री बेनी प्रसाद वर्मा ने भी कोई अनर्गल टिप्पणी किसी विषय पर की थी। इसी क्रम मे ंआडवानी जी पाकिस्तान जाकर जिन्ना की कबर पर सलाम करते समय कह बैठे थे कि जिन्ना साहब दुनिया के सबसे बड़े सैकुलरवाद के प्रणेता थे। श्री जसवन्त सिंह जी ने भी अपनी एक किताब ऐसे ही किस्सों के साथ लिख मारी। अब चूँकि ये सब बड़े लोग हैं कुछ भी कह सकते हैं, मंच से कुछ भी बोल सकते हैं, कुछ भी लिख सकते हैं और बाद में केवल एक वाक्य से लीपा पोती भी कर सकते हैं कि उनके कहने का मतलब यह नहीं था। <br />अभी कुछ दिन पहले हर अखबार में आये दिन छप रहा था कि आज दिल्ली के फलाँ इलाके से कार सवारों ने एक लड़की को उठा लिया, एक औरत को उठा लिया और अपनी हवस का शिकार बना कर किसी सुनसान जगह पर फैंक दिया। तब मैंने एक कविता लिखी थी जिसकी अतिंम पंक्तियाँ थी <br />‘‘ हर हादसे के बाद <br />मिलती संात्वना सरकार से <br />और मिलती इक दिलासा<br />इस घिनोने काम का <br />अब शीघ्र ही होगा खुलासा <br />पर क्या मिलेगा पीडि़ता को न्याय <br />जहाँ कानून हो लँगड़ा<br />व्यवस्था एकदम गड़बड़।’’<br /><br />हमारा ही तो एक देश है जहाँ सौ प्रतिशत लोकतन्त्र है। इसमें आप कुछ भी बोलो बड़े से बड़ा गबन करो और अपनी डायरी में लिख कर रख लो कि आपका बाल भी बाँका नही होगा। पिछले 65 सालों का इतिहास उठाकर देख लो अगर एक भी दोषी को सजा हुई हो। कानीमोरी, कलमाड़ी या ए.राजा का उदाहरण मत देना। हजारों करोड़ के घोटाले के बाद थोड़े से दिन की नजरबन्दी केवल हलके से कायाकष्ट की परिभाषा में आती है। सजा सुनाते वक्त ‘‘सश्रम कारावास’’ का शब्द इनकी सजाओं के साथ नहीं जुड़ता। फिर जमानत मिलने का मतलब होता है आधा केस खत्म हो जाना। <br />इस दौरान यदि कोई विहसल बलोअर बीच में आ टपकता है तो उसे ऐसे ढंग से साफ कर दिया जाता है कि उसकी जमात के दूसरे लोग भी सावधान हो जाये और भ्रष्टाचार के विरूद्ध सीटी बजाने से बाज आयें। <br />लेकिन कहते हैं न कि किसी का भी बीज नाश नही होता। कितने भी सीटी मास्टर मारे जायें लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर कोई न कोई मर्द पैदा हो जाता है। यह सृष्टि का नहीं राजनीति का कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला है। <br />अब गडकरी जी की चर्चा थोड़े दिन अधिक से अधिक तीन दिन चलेगी फिर सब कुछ ऐसे शान्त हो जायेगा जैसे तालाब में किसी ने पत्थर फैंका ही नही और अल्ला अल्ला खैर सल्ला। <br />आपके मन में भी एक सवाल उठता होगा कि किया क्या जाये ? आये दिन कोई न कोई गलत बयानी कोई न कोई घोटाला सामने आता रहता है। आवाजें उठती हैं कसमसाहट होती है और जनता में शामिल हर जीव अपने भीतर एक उबाल को दबा कर मँहगाई के खिलाफ युद्ध में रत हो जाता है। पैट्रोल-डीजल, रसोई गैस के बढे़ हुअे दामों पर तो वह सीधा सरकार को कोसता है और आटे, दाल, चावल, सब्जियों के लिये वह मन ही मन कुढ़ता है और किसी न किसी को कोसता भी है। पर कभी चील कौओं के कोसने से भला पशु मरते हैं ?<br />वह जानता है कुछ भी नही होने वाला। उसे इसी घुटन में होठों को बन्द कर जीना होगा। यही उसकी नियति है। <br />
<br /></div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-32769444824767865252012-08-29T22:32:00.002-07:002012-08-29T22:32:34.876-07:00संन्यासी हो गया सवेरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
<br />
<br />
संन्यासी हो गया सवेरा<br />
जोगन पूरी शाम हुई<br />
छली रात झूठे सपनों ने<br />
यूंही उमर तमाम हुई।<br />
<br />
मन ने नित्य उज़ाले देखे<br />
अंतरमन की शाला में<br />
कर लें दूर अंधेरे हम भी<br />
सोचा बार—बार मन में<br />
तन ने किये निहोरे मन के<br />
मत बुन जाल व्यर्थ सपनों के<br />
मयखाने के बाहर तन की<br />
हर कोशिश नाकाम हुई।<br />
<br />
मटकी दूध कलारिन लेकर<br />
मयखाने से जब गुज़री<br />
होश में आये पीने वाले<br />
मन में एक कसक उभरी<br />
इक पल उनको लगा कि उसने<br />
आकर मदिरा हाथ छुई<br />
पीने वालों की नज़रों में<br />
बेचारी बदनाम हुई।<br />
<br />
यों तो मिलीं हजारों नज़रें<br />
पर न कहीं वह नज़र मिली<br />
चाहा द्वार तुम्हारे पहुंचूं<br />
पर न कहीं वह डगर मिली<br />
तुम कहते याद न हम आये<br />
हम
कहते कब बिसरा पाये<br />
सारी उमर लिखे ख़त इतने<br />
स्याही कलम तमाम हुई।<br />
<br />
सोचा अब अंतिम पड़ाव पर<br />
हम भी थोड़ी सी पी लें<br />
मन में सुधियां जाम हाथ में<br />
अन्त समय जी भर जी लें<br />
जब तक जाम अधर तक आया<br />
साकी तभी संदेशा लाया<br />
ज़ाम आख़िरी पी लो जल्दी<br />
देखो दिशा ललाम हुई।<br />
<div>
<br /></div>
</div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-81680850448956402322012-08-29T22:22:00.003-07:002012-08-29T22:22:25.193-07:00इस मन का पागलपन देखूँ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<br />
इस मन का पागलपन देखूँ<br />
या जर्जर होता मन देखूँ<br />
देखूँ सपनों के राजमहल<br />
या यादों के उपवन
देखूँ ।<br />
<br />
इक मीठी याद भुलाने को<br />
क्यों एक उमर कम पड़ती है<br />
क्यों जग से जाने से पहले<br />
हर सांस सांस से लड़ती है<br />
फिर, अंत समय कहती बाती<br />
तम
देखूँ या ईंधन
देखूँ ।<br />
<br />
धरती के कण—सी उमर मिली<br />
पर्वत—से पाले मंसूबे<br />
अब कुछ तो हम पूरे कर लें<br />
क्यों रहें कशमकश में डूबे<br />
क्यों अंत समय यह प्रश्न रहे<br />
मैं तन
देखूँ या मन
देखूँ ।<br />
<br />
पल अंतिम आंखें रही खुली<br />
इसलिए कि शायद तुम आओ<br />
वह राग बसा जो रग—रग में<br />
तुम शायद फिर से दुहराओ<br />
अब कहता मन न स्वपन देखूँ<br />
अब देते विदा स्वजन
देखूँ ।<br />
<br />
उन्मीलित पलकें खोज रहीं<br />
जीवन के रंगीं, सपनों को<br />
इस जुटी भीड़ में ढूंड रहीं<br />
कुछ गैरों को, कुछ अपनों को<br />
अब होतीं बन्द पलक देखूँ<br />
या होते सजल नयन
देखूँ ।<br />
<br />
<br />
</div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-41976030023201333062012-08-22T23:18:00.000-07:002012-08-22T23:18:01.207-07:00चलो मन अब तुम ऐसे देश <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
चलो मन अब तुम ऐसे देश<br />
जहाँ पर नयनन बरसे नेह<br />
जहाँ पर सीता—सी हों नारि<br />
जहाँ के नर हों सभी विदेह।<br />
<br />
जहाँ पर हो कोयल की कूक<br />
भ्रमर की गुंजन का हो गान<br />
जहाँ पर तितली हों आजा़द<br />
निडर हो पक्षी भरें उड़ान<br />
जहाँ पर हो निर्मल—सा नीर<br />
जहाँ पर हो मुरली की तान<br />
जहाँ पर हो राजा का न्याय<br />
बड़ों का होता हो सम्मान<br />
किसी के आँगन उतरे चाँद<br />
तो वन्दनवार बँधे हर गेह।<br />
<br />
जहाँ हो अलगोजे पर गीत<br />
पवन सँग चूनर के रँग सात<br />
जहाँ हो गंगाजल—सा प्यार<br />
जहाँ हो लक्ष्मण जैसा भ्रात<br />
जहाँ हो सागर एक विशाल<br />
तैरते जिस पर हों जलयान<br />
जहाँ हो सागर एक विशाल<br />
तैरते जिस पर हों जलयान<br />
जहाँ की धरती पर हो धर्म<br />
जहाँ हों भरे हुए खलिहान<br />
जहाँ पर मोर पुकारें मेघ<br />
धरा पर बरसाओ तुम मेह।<br />
<div>
<br /></div>
</div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-44946679682280541942012-08-21T03:31:00.001-07:002012-08-21T03:31:26.103-07:00आ गया फिर से वही दिन (स्वयं के जन्मदिन पर)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
आ गया फिर से वही दिन<br />
बोझ कन्धों पर उठाये<br />
चल रहा है अनमना—सा<br />
दर्द अन्तस में छुपाये।<br />
<br />
बढ़ रहा लेकर विकल मन<br />
ताप से जलता हुआ तन<br />
जा रहीं पगडण्डियॉ सब<br />
पार जंगल के घने वन<br />
तू कहाँ जा कर रूकेगा<br />
प्यास मन की बिन बुझाये।<br />
<br />
किस तरह की यह उदासी<br />
नीर बिन ज्यों मीन प्यासी<br />
और थोड़ी दूर चल तू<br />
साँझ बैठी है रुँआसी<br />
कौन उसका हाथ थामे<br />
कौन घूँघट को उठाये।<br />
<br />
तू निशा के द्वार जाकर<br />
चैन की कुछ साँस लेगा<br />
स्वपन माया के रचेगा<br />
भोर को फिर चल पड़ेगा<br />
बिन कोई कारण बताये<br />
पीर की गठरी उठाये।<br />
</div>
बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-80581622459539243582012-01-05T22:02:00.000-08:002012-01-05T22:31:08.232-08:00दो शब्द विदाई पर<span style="font-weight: bold;">एक</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">सितारा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">टूटा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">नभ</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">से</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जाने</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कहाँ</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गया</span><br style="font-weight: bold;"><span style="font-weight: bold;">वह</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गीतों</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">का</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हरकारा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जाने</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कहाँ</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गया</span><span style="font-weight: bold;">। </span><br /><br />हिंदी गीत के पुरोधा , अद्वितीय गीतकार श्री भारत भूषण यों तो १७ दिसम्बर, २०११ सांय चार बजे इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गए, पर वास्तविकता तो इससे परे है। मैं समझता हूँ जब तक हिंदी गीत विधा जीवित रहेगी तब तक मोजूद रहेंगे हम सबके बीच भाई <span style="font-weight: bold;">भारत</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">भूषण</span><span style="font-weight: bold;"> </span>।<br />पिछले लगभग चार साल से मैं लगातार अपना पाक्षिक पत्र "दी गौडसन्स टाइम्स " उन्हें भेजता रहा हूँ। जब कभी उनका हाल जानने के लिए फोन करता तो बड़े उत्साह से उत्तर देते, <span style="font-weight: bold;">"</span><span style="font-weight: bold;">मैं</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">बिलकुल</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">ठीक</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हूँ</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अब</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">तो</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">अच्छा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">महसूस</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">कर</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">रहा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">हूँ</span><span style="font-weight: bold;"> "</span>फिर ढेर सारी बातें पत्र में छपी हुई कविताओं पर होती और फिर मेरे सम्पादकीय क़ी प्रशंसा की जाती । फिर मैं भी दूसरे साहित्यकारों की तरह ही अपनी रचना की बढाई सुनकर मन ही मन बहुत प्रसन्न होता, उन्हें धन्यवाद देता और बातचीत का दी एंड हो जाता ।<br />लगभग तीन वर्ष पहले उनका एकल कविता पाठ दिल्ली हिंदी भवन में होना था। उससे पहले मैंने उन्हें नहीं देखा था। देखा आगे से उठकर पीछे क़ी और एक कृषकाय शरीर आधे बाजू की कमीज और पेंट पहने चश्मा लगाय आ रहा है। मुझे तो साथ बैठे मित्र ने बताया क़ी यही भारत भूषण जी है। मैं बड़ी तेजी से उनके समीप पहुंचा , प्रणाम करने पर उन्होंने मुझसे पूछा " आप कोन है, माफ़ करना मैं पहचान नहीं पाया" जब मैंने परिचय दिया तो वह मुझसे लिपट गए और गदगद स्वर में बोले " भई लिखने में तो कमाल करते हो, तुमाहरे सम्पादकीय बड़ी मीठी मार मारते है। "<br />इस मुलाकात के बाद ओपचारिक जान पहचान ने एक मित्रता का रूप ले लिया । मेरे लगातार किये गए वायदे कि मैं मेरठ आपसे मिलने आऊंगा , वायदे ही रह गए। जा ही नहीं पाया और वे हम सबको छोड़कर न जाने किस लोक चले गए, न जाने कोन सी नदी की जल समाधी ले ली ।<br />मेरे सामने उनके द्वारा भेजी गयी पुस्तक<span style="font-weight: bold;"> " </span><span style="font-weight: bold;">मेरे</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">चुनिन्दा</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">गीत</span><span style="font-weight: bold;">" </span>पडी है, मुख्य पृष्ट पर भाई भारत स्वयं विराजमान है। यह पुस्तक कुछ माह पहले उन्होंने मेरे पास समीक्षार्थ भेजी थी। समीक्षा अभी तक नहीं लिखी जा सकी और एक तरह से यह अच्छा ही हुआ । मेरे जैसा अल्प बुद्धी वाला व्यक्ति भला कैसे इतने बड़े गीतकार के गीतों की समीक्षा लिख पाता।<br /><br />बी.एल.गौड़बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-26504050956563635622011-12-24T02:41:00.000-08:002011-12-24T02:49:09.050-08:00याद नहीं अब<span>याद</span> <span>नहीं</span> <span>अब</span><br />जीवन में मैं<br />हारा कब-कब<br />है बस इतना याद<br />कि हारा जब-जब<br />रण के बीच नहीं<br />हारा, घर के भीतर।<br /><br />मन के सब अस्त्र-शस्त्र<br />खडग-तेग-तलवार<br />बाहर तो खूब चले<br />पर रहे मोथारे घर -भीतर<br />रहे देखते अपलक<br />म्यानो से उचक-उचक<br />होता अत्याचार<br />अपनों द्वारा अपनों पर।<br /><br />कटते हुए पेड़ ने<br />कहा कुल्हाड़ी से<br />जब वह<br />काट रही थी उसको जड़ से<br />" अरी निगोड़ी सुन<br />तनिक सांस तो ले<br />इक बात मेरी सुन ले<br />क्या तू मुझे काट पाती पगली<br />यदि होता मेरा हाथ<br />न तेरे सर पर"।<br /><br />बी.एल.गौड़बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-41570596967112096542011-11-30T23:30:00.000-08:002011-11-30T23:53:59.970-08:00मुख्य अतिथि का स्वागत24 नवम्बर की घटना की चर्चा देश के कोने-कोने में है। भला हो मीडिया का विशेष कर इलैक्ट्रानिक मीडिया का कि इस प्रकार की किसी भी घटना या दुर्घटना के घटित होने पर टूट पड़ता है उस खबर पर और मिलता है मुद्दा हर चैनल को अपनी टी.आर.पी. बढाने का । कल मैं इस घटना को घटित होते हुए टी.वी. पर देख रहा था। बार-बार लगातार एक ही दृश्य कि किस प्रकार हरविंदर सिंह ने श्री शरद पवार को थप्पड़ मारा और थप्पड़ भी इतनी ताकत से कि बेचारे शरद पवार टेढ़े होकर दीवार से जा लगे। कुछ मिनट तक लगातार एक ही दृश्य को बार बार देखाते हुए देख कर मैं बोर हो गया और चैनल बदल दिया, लेकिन वहाँ भी यही दृश्य और फिर लगातार हर न्यूज चैनल पर वही दृश्य।<br /><br />इस घटना से कई बातें उभर कर आती हैं। आयोजनकर्ताओं की सबसे बड़ी गलती है कि महगाई के इस दौर में जब देश का आमजन दो जून की रोटी के लिए जूझ रहा है और खाद्दानों की कीमतें आसमान छू रही हैं, आप ऐसे दौर में मुख्य अतिथि के रूप में बुला रहे हैं ऐसे मंत्री को जिनके कन्धें पर पहले ही देश की खाद व्यवस्था का इतना बोझ है कि उनके दोनों कंधे इससे झुके हुए हैं. वे अपनी समझ से महंगाइ को नीचा दिखाने के लिए उससे हाथापाइ में लगे हैं। अरे किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाते जो कम से कम तुम्हें इस बढ़ती हुइ महंगाइ के कारण बताता और खाद्दानों की कीमतों के ऊँचे जाते हुए ग्राफ के विषय में बतलाता। जब शरद पवार जी को इस सबके विषय में कुछ पता ही नहीं है तो वे बतलाते भी क्या? उन्होंने तो साफ कहा कि आज संसद में विपक्ष जो महंगाइ पर चीख पुकार मचा रहा है, उसका कारण कम से कम उन्हें नहीं मालूम। न मीडिया यह सवाल उनसे पूछता और न वे नकारात्मक उत्तर देते और न ही सिरफिरा हरविंदर सिंह यह कहते हुए कि "सब पता है" उन्हें थप्पड़ मारता। अरे भले मानस तुझे उनकी उमर का तो ख्याल करना चाहिए था। दरअसल थप्पड़ की भी कई डिग्रियां होती हैं जैसे:चाँटा, झापड़ और थप्पड़। इनमें मुझे लगता है कि शायद थप्पड़ ही सबसे धमाकेदार और ताकतवर होता है।<br /><br />इस काण्ड में दूसरी कमी है दिल्ली पुलिस की जब उसे पता है कि हरविंदर सिंह एक पेशेवर थप्पड़ बाज है तो श्री पवार को जो देश के एक कद्दावर नेता हैं। कुछ अधिक सुरक्षा देनी चाहिए थी और एक आश्चर्य की बात और भी है कि जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए हैं जब इसी व्यक्ति ने आदरणीय सुखराम जी पर भी हमला किया था। तब सरकार ने क्यों नहीं सोचा कि उसे हरविंदर सिंह जैसे युवकों से जो देश की महंगाइ, भ्रष्टाचार और नेताओं से खार खाये बैठे हैं। थोड़ा होशियार रहे और नेताओं की सुरक्षा और बढ़ाये ताकि वे सरे राह व सरेआम इस तरह से पिटने से बचें।<br /><br />वैसे इस तरह से रोष प्रकट करने के मामले पहले भी प्रकाश में आये हैं, जब लोगों ने नेताओं पर चप्पल-जूते भी फैंके हैं, थूकना, टमाटार या अण्डे फैंकना भी कइ मामलों में हुआ है। और ये नहीं कि ऐसा केवल हमारे ही देश में होता है, विदेशों में भी कभी-कभार जूता फिन्काई होती है।<br /><br />पर ऐसी घटनाओं के पीछे राज क्या है, क्यों होता है, ऐसा इस पर शायद ही कोइ सोचता हो, शायद स्वयं अपमानित हुआ नेता भी नहीं। क्योंकि इस तरह का उसका सार्वजनिक अपमान, एक राजनीतिक बहस में तबदील होकर रह जाता है। संसद में बहस होती है। गरमा -गरम बहस के बाद सब उठकर अपने-अपने घर चले जाते हैं, फिर दोनों पक्ष नये-नये मुद्दों की खोज में लग जाते हैं। आगामी सत्र में कैसे एक-दूसरे को मात देनी है, यह प्रश्न महंगाइ के पंश्न के ऊपर हावी हो जाता है और समस्याएं अपनी जगह उफनते हुए दूध् के झाग की तरह नीचे बैठ जाती हैं।<br /><br />हमारे अपने विचार में तो ऐसे युवकों को सजा देने से पहले सार्वजनिक मंचों पर बुला कर पूरे तौर पर सुनना चाहिए। आखिर इतनी बड़ी भीड़ में उन्होंने ही ऐसा साहसिक या दुस्साहसिक कदम क्यों उठाया और सारी भीड़ क्यों शांत रही। खोज होनी चाहिए कि क्या हरविंदर सिंह जैसे लोग सिरफिरे हैं? किसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं? या किसी भीड़ का प्रतिनिधितिव करते हैं और एक खुली बहस के बाद ही उनकी सजा मुकरर करनी चाहिए।<br /><br />इस प्रकार खुले आम थप्पड़ मार कर किसी का अपमान करना और वह भी एक नेता का सरासर गलत है, निन्दनीय है। अपमानित करने के या किसी को उसके कर्त्तव्य की याद दिलाने के और भी तरीके हैं।<br /><br />देश की ज्वलन्त समस्याओं पर विपक्ष कभी एक मत नहीं होता। सभी पार्टियाँ एक ही समस्या को अपने-अपने दृष्टिकोण से उठाती है, समस्या एक ही होती है पर वे कभी एक मत नहीं होते।<br /><br />इसी के चलते मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं :µ<br /><br /><span style="font-weight: bold;">तुमसे </span><span style="font-weight: bold;">अधिक</span><span style="font-weight: bold;"> दोषी हैं तुम्हारे </span><span style="font-weight: bold;">विरोधी</span> <br /><span style="font-weight: bold;">जो तुम्हारे घोर </span><span style="font-weight: bold;">विरोधी</span><span style="font-weight: bold;"> होकर भी</span><br /><span style="font-weight: bold;">परस्पर घोरतम </span><span style="font-weight: bold;">विरोधी</span><span style="font-weight: bold;"> हैं</span><br /><span style="font-weight: bold;">काश! वे सब एक हो पाते</span><br /><span style="font-weight: bold;">तो हमारा वोट डालना</span><br /><span style="font-weight: bold;">सार्थक</span><span style="font-weight: bold;"> हो जाता</span><br /><span style="font-weight: bold;">हमारा गुल्लू भी मदरसे जा पाता</span><br /><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> रोटी भी शायद</span><br /><span style="font-weight: bold;">दोनों जून मिल पाती</span><br /><span style="font-weight: bold;">गुल्लू की माँ प्यार से बतियाती</span><br /><span style="font-weight: bold;">. . . . . . . . . . . . . . . .</span><br /><span style="font-weight: bold;">. . . . . . . . . . . . . . . .</span><br /><span style="font-weight: bold;">मेरा सारा आक्रोश</span><br /><span style="font-weight: bold;">विरोधियों</span><span style="font-weight: bold;"> के प्रति है</span><br /><span style="font-weight: bold;">यह तभी </span><span style="font-weight: bold;">धुलेगा</span> <br /><span style="font-weight: bold;">जब उनके हाथों में</span><br /><span style="font-weight: bold;">एक रंग का झण्डा होगा ...</span><br /><br />अपनी एक कविता "वोटर के द्वार नेता" से।<br /><br />बी.एल.गौड़बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-70896888871006038352011-11-28T02:36:00.000-08:002011-11-30T23:27:32.879-08:00"काश ! इतना पता होता "<div>एक नई रचना :-<span>काश</span> <span>इतना</span> <span>पता</span> होता</div><span><span></span></span><div> </div><br /><div></div><div>काश मैंने </div><div>तुमाहरी हथेली पर बना </div><div>एक अनजान द्वीप का नक्शा </div><div>पढ़ लिया होता </div><br /><br /><div>तो इतिहास कुछ और होता </div><div>न तुम पीर सहते<br />न मैं दर्द ढोता<br /><br /><br />बात यह नहीं थी<br />कि मैं<br />पड़ा लिखा नहीं था<br />बस कमी यह थी<br />कि मैं<br />समझदार नहीं था<br />प्यार भी व्यापार है<br />काश इतना पता होता<br /><div>तो इतिहास कुछ और होता </div><span>न</span> <span>तुम</span> <span>पीर</span> <span>सहते</span><br /><span>न</span> <span>मैं</span> <span>दर्द</span> <span>ढोता</span><br /><br /><br />इतिहास गवाह है<br />कि ईश्वर<br />ऐसे मामलो में<br />अक्सर चुप रहा है<br />उसने तो बहुत पहले ही<br />लैला मजनू<br />हीर राँझा<br />शीरे फरियाद<br />और सोनी महिवाल का<br />फैसला सुना कर<br />बंद कर दिया था<br />अपना बही खाता<br /><br /><br />असलियत का पता<br />तो उसे तब लगता<br />जब उसने भी<br />किसी से प्यार किया होता<br /><div>तो इतिहास कुछ और होता </div><span>न</span> <span>तुम</span> <span>पीर</span> <span>सहते</span><br /><span>न</span> <span>मैं</span> <span>दर्द</span> <span>ढोता</span><br /><br /><br />बी .एल.गौड़<br /><br /></div>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-78294141568116744572011-11-17T23:38:00.000-08:002011-11-18T00:14:17.861-08:00एक नई रचना "मैं नदी हूँ "प्रिय मित्रो ! एक लम्बे अरसे के बाद लौटा हूँ , आशा है क्षमा करेंगे " परिस्तिथियाँ लौह क़ी चट्टान होती हैं / यह मुझसे बढ़कर जानता है कौन / यह कविता फिर कभी , अभी " मैं नदी हूँ "<br />मैं नदी हूँ<br />मैं नदी हूँ<br />पीर हूँ हिमखंड क़ी<br />जब सह न पाया ताप वह<br />दिनमान के उत्कर्ष का<br />गलने लगा<br />बहने लगा , वह<br />धार बनकर नीर क़ी<br />बहती हुई उस पीर का<br />परियाय्वाची नाम मेरा धर दिया<br />कह दिया<br />कि मैं नदी हूँ<br />संजीवनी वनखंड की<br /><span class=""></span><br /><span class="">छोड़ पीहर जब चली थी </span><br /><span class="">चाल मेरी थी प्रचंड </span><br /><span class="">पारदर्शी रूप में ज्यों </span><br /><span class="">बह रहा हिमखंड </span><br /><span class="">पर धरा के वासिओं ने क्या किया </span><br /><span class="">कि गंदगी के ढेर से </span><br /><span class="">हर अंग मेरा ढक दिया </span><br />और चांदनी सा रूप मेरा<br />बादलों सा धूसर कर दिया<br />अब क्या करूं<br />बेहद दुखी हूँ<br />मार कर मन बह रही हूँ<br />चल रही हूँ चाल मैं वितंड की<br /><span class=""></span><br /><span class="">क्या कहूँगी मैं समंदर से </span><br /><span class="">जो बड़ा बेताब है मेरे मिलन को </span><br /><span class="">कैसे कहूँगी </span><br /><span class="">प्रिय ! तुम मुझे स्वीकार कर लो </span><br /><span class="">मैं कुरूपा हूँ नहीं कर दी गई हूँ </span><br /><span class="">नहीं यह दोष मेरा </span><br /><span class="">दोनों तटों को आज मेरे </span><br /><span class="">आदमी का रूप धरकर </span><br />वनचरों ने आन घेरा<br />लाज उनको है नहीं छूकर गई<br />पूरी तरह विद्द्रूप कर के वे मुझे<br />कह रहे हैं गर्व से<br />कि मैं नदी हूँ<br />भोगती हूँ नित सजा म्रत्युदंड की<br /><span class="">बी एल गौड़ </span>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-31607976139979701892011-08-02T05:33:00.000-07:002011-08-02T05:34:27.225-07:00१ में नदी हूँ१ में नदी हूँ<br />में नदी हूँ<br />पीर हूँ हिमखंड की <br /><br />जब सह न पाया ताप वह<br />दिनमान के उत्कर्ष का<br />गलने लगा<br />बहने लगा<br />धार बनकर नीर की<br />बहती हुई उस पीर का<br />परियायवाची नाम मेरा धर दिया<br />कह दिया<br />कि मैं नदी हूँ<br />संजीवनी बनखंड की<br /><br />छोड़ पीहर जब चली थी<br />चाल थी प्रचंड मेरी<br />पारदर्शी रूप था<br />धूप जैसा रंग था<br />पर धरा के वासिओं ने आन घेरी<br />गंदगी के ढेर से<br />हर अंग मेरा ढक दिया<br />चांदनी सा रूप मेरा<br />बादलों सा धूसर कर दिया<br />अब क्या करूं<br />बेहद दुखी हूँ<br />मारकर मन बह रही हूँ<br /><br />क्या कहूँगी मैं समंदर से <br />जो बड़ा बेताब है मेरे मिलन को<br />कैसे कहूँगी<br />प्रिय ! तुम मुझे स्वीकार करलो<br />मैं कुरूपा हूँ नहीं , कर दी गयी हूँ<br />नहीं यह दोष मेरा<br />दोनों तटों को आज मेरे<br />आदमी का रूप धरकर<br />वनचरों ने आन घेरा<br />लाज उनको है नहीं छूकर गई<br />पूरी तरह विद्रूप करके ,वे मुझे<br />कह रहे हैं गर्व से<br />क़ि मैं नदी हूँ<br />भोगती हूँ नित सजा म्रतुदंड की<br /><br />बी एल गौड़<br />बी १५९ , योजना विहार , दिल्ली ९२ .बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-40228393682922927832011-06-09T04:14:00.000-07:002011-06-09T04:45:46.437-07:00एक नई रचना "नीड़ का निर्माण आधा "ऐसी मान्यता है कि नर बया घोसला बुनना शुरू करता है और आधा निर्माण हो जाने पर घोंसले के बाहर न्रत्त्य<br /><span class="">करता है जब तक कि कोई मादा बया उसके न्रत्त्य पर रीझ कर उसके पास न आ जाए , फिर दोनों मिलकर </span><br /><span class="">घर ( नीड़ ) पूरा करते हैं , उसके बाद बया उसमें अपने बच्चों को जनम देती है , इसे लेकर एक रचना :-</span><br /><span class="">नीड़ का निर्माण आधा </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">कर नीड़ का निर्माण आधा </span><br /><span class="">नर बया ने मौन साधा </span><br /><span class="">न्रत्त्य कर कर थक गया तन </span><br /><span class="">पर न आई एक राधा </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">उड़ गया फिर दुसरे वन </span><br /><span class="">इक नया संकल्प लेकर </span><br /><span class="">अब बुनूँगा नीड़ फिर से </span><br /><span class="">स्वयं का सर्वस्व देकर </span><br /><span class="">एक शंका घेरती मन </span><br /><span class="">हो चुका इक बार ऐसा </span><br /><span class="">बांसुरी कि तान पर भी </span><br /><span class="">राधिका ने मौन साधा </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">पर न पीछे अब हटूंगा </span><br /><span class="">नीड़ को आकार दूंगा </span><br /><span class="">और अंतिम सांस तक मैं </span><br /><span class="">आस उसकी में रहूँगा </span><br /><span class="">है प्रणय में शक्ति कितनी </span><br /><span class="">यह समय बतलायेगा </span><br /><span class="">जब न्रत्त्य में लूंगा समाधि </span><br /><span class="">ढूँढती आएगी राधा </span><br /><span class=""></span><br /><span class="">बी एल गौड़ </span>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-58731798757695091492011-06-04T02:30:00.000-07:002011-06-04T02:39:15.086-07:00मेरी रचनाओं पर टिप्नियाँमेरी रचनाओं पर टिप्पणी कर मुझे प्रोत्साहित करने वालो मेरे मित्रो !अरुण राय ,रिचा पी माधवानी ,सुनील कुमार<br />वंदना जी ,संगीता स्वरुप वीणा व अन्य सभी को मेरी ओरे se यथा योग्य नमन व शुभ आशीर्वाद तथा धनंयवाद<br /><br />शुभेछु<br />बी एल गौड़बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-70613510883552524472011-06-03T04:11:00.000-07:002011-06-03T04:14:46.001-07:00एक नई रचना "पडौसी"जय लोक मंगल के सभी मित्रों को मेरा नमन<br />कहते हैं न कि एक तो गिलोय कडवी दूजे नीम चढ़ी सो अपना भी वही हाल है एक तो व्यस्तता अधिक दुसरे इस<br /><span>कंप्यूटर कि विधा में हाथ कमजोर ,इसी लिए इतने दिनों के बाद यह मुलाक़ात हो रही है तो चलिए आपकी नाराजगी को दूर करते हैं एक नई रचना से </span><br />पडौसी<br />मैं पडौसी को नहीं<br />पडौसी के घर को जानता हूँ<br />भला हो<br />उसके द्वार पर लगे नामपट्ट का<br />जिससे चलता है पता<br />कि वह किस जात का है<br /><br />जब मैं इस शहर में आया<br />तो मैंने भी<br />अपने दरवाजे पर<br />अपना नहीं ,अपनी जात का बोर्ड लगवाया<br />बोर्ड इस लिए कि वह<br />नामपट्ट से बड़ा होता है<br />और पडौसी को<br />यह अहसास दिलाना जरूरी था<br />कि मैं तुझ से कम नहीं<br />तू मुझे नहीं जानता<br />तो मैं भी तुझे नहीं<br /><br />यहाँ आकर पता चला<br />कि पडौसी का पडौसी को न जानना<br />यहाँ कि संस्कृति है<br />इससे एक बड़ा लाभ यह होता है<br />कि वक्त पड़ने पर पडौसी<br />आराम से कन्नी काट जाता है<br />और घर के सबसे पिछले कमरे में<br />बज रहे रेडियो को धीमा कर<br />या फिर कर<br />टी वी को साइलेंट मोड़े पर<br />पडौसी की अर्थी उठने का इन्तजार करता है<br /><br />दुनियादारी भी जरूरी है<br />इस लिए वह<br />ऑफिस जाते हुए<br />कुछ मिनट के लिए<br />मरघट जाना नहीं भूलता<br />अफ़सोस जता कर<br />यह बताना नहीं भूलता<br />की वह आदमी की जात का है<br /><br />सुना है की यह शहर की कल्चर है<br />पर न जाने क्यों , मैं<br />सोचता रहता हूँ<br />की यहाँ का बाशिंदा<br />आदमी है या वनचर है<br />वैसे इस तरह का चलन<br />नेताओं के लिए बड़ा हितकारी है<br />क्योंकि उनका<br />आदमी से अधिक<br />उसकी जात का जानना बहुत जरूरी है<br />यही तो वह तुरप का इक्का है<br />जो हर चुनाव पर भारी है<br /><br />ढेर लगे ताश के पत्तों पर<br />जब यह इक्का पड़ता है<br />तो सारे पत्ते एक तरफ चले जाते हैं<br />नेता को गद्दी पर बिठाते हैं<br />फिर ऐसे नेता देश चलाते हैं<br />न जाने वह दिन कब आयेगा<br />जब हर घर के दरवाजे पर<br />जात का नहीं<br />आदमी का नाम लिखा जाएगा<br />वह महज एक वोट नहीं<br />आदमी कह लाएगा<br />और तब मैं भी<br />गर्व से कह सकूंगा<br />कि मैं पडौस के घर को नहीं<br />पडौसी को जानता हूँ<br /><br />बी एल गौड़बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-67980813243118159062011-06-02T04:41:00.000-07:002011-06-02T04:43:22.833-07:00नींव से नाली तक<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi0S2KH79NwDm09kPN2FRtwikDKykKamHMDsNxA61MAE_xcznQ15TrJwuIQFew9Ea9_AQq-LXHcRmUuGzT2rIFFDywhvoG2Dbwdy5LX-VuMvTKrfATLftrzYvkIIMjyRPfMkiJOnjQiQfc/s1600/123.bmp"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 200px; DISPLAY: block; HEIGHT: 150px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5613586646880770786" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhi0S2KH79NwDm09kPN2FRtwikDKykKamHMDsNxA61MAE_xcznQ15TrJwuIQFew9Ea9_AQq-LXHcRmUuGzT2rIFFDywhvoG2Dbwdy5LX-VuMvTKrfATLftrzYvkIIMjyRPfMkiJOnjQiQfc/s200/123.bmp" /></a><br /><br /><div>यह मेरी हिंदी में लिखी इंजीनिरिंग कि पुस्तक "नींव से नाली तक " तक का लोकार्पण का चित्र है उत्तराखंड के मु . मंत्री<br />श्री रमेश पोखरियाल निशंक एवम गवर्नर श्रीमती मारग्रेट अलवा के द्वारा यह लोकार्पण २३ मई २०११ को हल्द्वानी में संपन्न<br />हुआ मित्रों को सूचनार्थ <br /><br />बी एल गौड़ .</div>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-28087906283526723472011-04-26T21:59:00.000-07:002011-04-26T22:27:20.806-07:00मुद्दतों के बाद पैदा होता है वतन में कद्दावर कोई<div align="justify"><br />देश को आजाद हुए 63 बरस बीत गये। जब देश आजाद हुआ तो लोग खुशी से झूम गये कि अब वतन आजाद है, अब इसमें निकलता हुआ सूरज हमारा अपना होगा, इसकी आबोहवा में बसे हुए डर का नामोनिशां नहीं होगा। राजतंत्र और गोरे बादशाहों की जंजीरों से हम छूटे और राज शुरू हुआ, हमारे अपनों का अपनों पर, अपनों के लिए। अर्थार्त राजतंत्र प्रजातंत्र में बदल गया। लेकिन चन्द बरसों में ही लोगों की समझ में आने लगा कि वर्तमान तंत्र में उनके साथ छल हो रहा है। लोकतंत्र और प्रजातंत्र जैसे शब्दों का अर्थ ही बे-मानी हो गया है। यदि तीस लोगों को अपना प्रधान चुनना है तो जिधर 16 के वोट होंगे प्रधान उन्हीं का होगा, चाहे वे 16 के 16 बेईमानी और भ्रष्ट ही क्यों न हों। और इसी संख्या बल के खेल का नाम रख दिया गया डैमोक्रैसी। बड़े-बड़े प्रायोजित विद्वान इस देश की जनता का प्रजातंत्र । डैमोक्रैसी का शाब्दिक अर्थ समझाने लगे गवर्मेंट ऑफ़ दी पीपल, फॉर दी पीपल और बाई दी पीपल। सब कुछ ठीक था, लेकिन इस सब में यह पीपल अर्थार्त पब्लिक कहीं नहीं थी। इसे तो मान लिया गया था - भेड़ों का झुण्ड। जब भी चुनाव आते- बगुले बंगलों से सड़क और गलियां में दिखाई देने लगते और भेड़ों की भीड़ का एक-एक आदमी, आदमी से बदलकर वोट बन जाता। जब भी कभी नेताओं के आवास पर चुनाव सम्बन्धी बैठक होती तो सभी प्रश्नों और उत्तरों में एक ही बात की चर्चा होती कि अमुक स्थान में अपने कितने वोट हैं और यदि नहीं हैं तो शेष आदमियों को कैसे वोट में तब्दील किया जा सकता है।<br />देश की संसद के लिए और प्रदेशों की विधान सभाओं के लिए जब चुनाव के मेले समाप्त होते तो वहां बनती सरकारें। वे सरकारें जो देश चलाती हैं अर्थार्त जनता को हाँकती हैं। जो नेता कल तक वोट के लिये दरवाजे पर खड़ा था आज उसके द्वार पर तैनात वर्दीधारी गार्ड और लान में घूमते कुत्ते उसी वोटर को अपने चुने हुए प्रतिनिधि की एक झलक से भी रोकने से गुरेज नहीं करते। इस तरह के हालात बीतते-बीतते आ गया नयावर्ष -2011<br />पिछले बरस अर्थार्त 2010 में हमारे देश में एक बड़ा कार्य हुआ अर्थार्त राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में हुआ। जिन भ्रष्ट लोगों के हाथों में आयोजन की कमान थी, उनका कलमाड़ी नाम का एक मुखिया था। इस मुखिया के तहत एक समिति बनी, जिसका मुख्य पेशा था - लूट और साथ ही साथ राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन। खेलों की तैयारियां चलती रहीं और लूटमारों की तिजोरियां भरती रहीं (जनता की खाली होती रहीं)।<br />फिर खेल खत्म और पैसा हजम वाला दिन आया। खेल खत्म हुए और भ्रष्टाचार को देख-देखकर दुखी हुई जनता को मुर्ख बनाने के लिए और भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए जाँच समितियां बनने लगीं। मीडिया और जनता डर-डर कर शोर मचाने लगे कि खेलों में भ्रष्टाचार हुआ है। फिर जाँच में थोड़ी आँच लगाईं जाने लगी, कुछ गिरफ्तारी आदि होने लगीं। इसी दौरान और भी कई बड़े घोटाले हुए। 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला वह भी एक लाख छियत्तर हजार करोड़ का था। उसी तरह कोई तेलगी घोटाला तो किसी अली का घोटाला इत्यादि। हताश जनता यह मान बैठी कि अब कुछ होने वाला नहीं है और हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे ही भ्रष्ट तंत्र में जीना पड़ेगा। 63 सालों का घोटालों का इतिहास साक्षी है कि घोटालेबाज चाहे केन्द्र के रहे हों अर्थार्त प्रदेश के, उनका आज तक कुछ भी नहीं हुआ और न भविष्य में कुछ होने वाला है। भले ही जनता की नजर में वे दागदार रहे हों लेकिन यह निश्चित है कि वर्तमान तंत्र के अंतर्गत वे बेदाग छूटेंगे। क्योंकि पिछले 63 बरसों की एक भी नजीर ऐसी नहीं है जिसे सामने रख कर यह कहा जा सके कि हाँ फलाँ घोटाले में फलाँ घोटालेबाज को इतनी सजा हुई थी।<br />ऐसे ही घुटन भरे नीम अँधेरे में से एक सूरज निकला जिसका नाम है -अन्ना हजारे , यह सूरज निकला महाराष्ट्र की धरती पर। हालांकि सूचना का अधिकार (आर.टी.आइ) का कानून बनते समय- अन्ना हजारे का नाम सुर्ख़ियों में रहा, लेकिन उसे तब तक बालरवि के रूप में ही जाना जाता रहा। लेकिन 5 अप्रैल का यह अन्ना हजारे नाम का सूरज अचानक दिल्ली की दहलीज पर आ चमका। और उसने आते ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बिगुल बजा दिया। उसके शंख की ध्वनि पूरे देश में पहुंच गई और सारा देश एक गहरी निद्रा से जाग गया।<br />अन्ना हजारे भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर अनशन पर बैठ गये। देश की जनता को लगा कि गाँधी फिर लौट आये हैं, इस बार विदेशियों से नहीं देशियों से आजादी दिलाने के लिए। उनका अनशन तुड़वाने के लिए सरकार ने बड़े प्रयत्न किये अन्ना को बतलाया गया कि जो लड़ाई आप लड़ने आये हैं वही तो हम भी लड़ रहे हैं और बिल्कुल उसी तर्ज पर लड़ रहे हैं जिस पर पूरे 63 साल से हम से पहले वाले नेता लड़ते रहे हैं। अन्ना को ये सब दलीलें बेहूदी लगीं, वे एक ही बात को लेकर अड़े रहे कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो भी समिति बनेगी उसके आधे सदस्य जनता के होंगे और आधे सरकार के और इसका अध्यक्ष होगा कोई न्याय में आस्था रखने वाला सेवानिवृत्त न्यायाधीश । न इससे ज्यादा न इससे कम और अन्त में इस नये गाँधी के सामने वर्तमान सरकार को घुटने टेकने पड़े। केवल 83 घंटे में सरकार पूरी तरह हिल गई , सारे देश में एक सैलाब आ गया, हर जुबान पर एक ही नाम था और वह था- अन्ना हजारे अमर रहें, अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं, देश का हर नागरिक यही आवाज देने लगा। और अन्ना हजारे की विजय के साथ ही यह 83 घन्टे का युद्ध दिनांक ८.४.२०११ को रात लगभग 11 बजे समाप्त हो गया। अब एक कानून बनेगा और उम्मीद है कि घोटालों के युग की समाप्ति होगी।<br />अन्ना हजारे जैसे युग पुरुष बड़ी मुद्दत के बाद किसी देश की धरती पर जन्म लेते हैं। शतायु हों श्री अन्ना हजारे यही प्रार्थना है ईश्वर से।<br />- बी.एल. गौड़</div>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-1732978084018939432011-04-07T03:30:00.000-07:002011-04-07T03:50:19.437-07:00देखें कुछ हाइकूबचा ही नहीं बूँद भर अम्रत पी गए देव बिना विचारे बोल का परिणाम महाभारत हुआ निस्सार शपथ लेते लेते गीता का सार लम्बी उमर नापते अनुभव न कि बरस सीता का दुःख उर्मिला के सम्मुख कुछ भी नहीं एक ही प्रश्न कब हों पीले हाथ चिंता में तात <span class="">चुनाव देख </span><span class="">बगुलों के वेश में </span><span class="">निकले कौवे </span><span class="">केन्द्रविंदु है </span><span class="">सीता अपहरण </span><span class="">रामायण का </span><span class=""></span><span class="">बी एल गौड़ </span><span class=""></span><span class=""></span>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4678449070236747812.post-3910694579254634492011-04-05T23:21:00.000-07:002011-04-05T23:52:45.118-07:00सो-सोकर जागता है तंत्र<div align="justify">अब खबर आई है कि भारत सरकार की नामी-गिरामी एजेंसी सी.बी.आई . फिर से सक्रिय हो गई है। उसने कहा है कि अब वह 26 साल बाद इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी मानव त्रासदी - " भोपाल गैस काण्ड " के सबसे बड़े अपराधी वारेन एंडरसन को वापिस भारत लाकर उस पर अपराधिक मुकदमा चलाना चाहती है। प्रश्न यह उठता है कि उसे अब तक किसने रोका हुआ था। क्या यह संस्था जो सीधे- सीधे भारत सरकार के आधीन है और कहते हैं कि यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है तो इतनी अच्छी बात उसे पहले क्यों नहीं सूझी। अब इस एजेंसी ने बड़ी मेहनतकर 33 पन्नों में यह बात लिखकर अदालत को बताई है कि एंडरसन को भारत लाना क्यों जरूरी है और यही एकमात्र रास्ता है जिससे 26 साल पहले जो हजारों आदमी एंडरसन की फैक्ट्री यूनियन कार्बाइड के गैस रिसाव से मर गये थे, उनकी आत्माओं को न्याय दिलाया जा सके। वैसे भी हमारे देश की परिपाटी बन चुकी है कि हम दिवंगत आत्माओं को ही न्याय दिलवा पाते हैं। इसका एक लाभ दिवंगतों के बचे-कुचे संबंधियोँ को यह मिलता है कि उनके मन में पल रहा दु:ख कुछ कम हो जाता है। अब श्रीमान एंडरसन 90 वर्ष के हो चुके हैं, जिन्हें भारत की अदालत में पेश करना है। अभी तो सी.बी.आई . ने इस काम को अंजाम देने के लिए तीस हजारी कोर्ट में 33 पन्नों का प्रार्थना -पत्र दिया है कि उसे ऐसा करने की इजाजत दी जाए। भारत में न्याय-प्रक्रयिा की देरी इस बात का सबूत है कि यहाँ आनन-फानन में कोई फैसला नहीं लिया जाता है, यहाँ दूध् का दूध् और पानी का पानी करने के लिये ही समय लगता है। उदाहरण के लिए जब सी.बी.आई . ने आदरणीय सुखराम शर्मा पूर्व संचार मंत्री भारत सरकार के आवास से कई करोड़ रुपये बरामद किये जो उनकी आय से अधिक थे, तो उन पर मुकदमा चला। 13 साल बाद उन्हें हाईकोर्ट ने बुलावा भेजा और जब सजा सुनाने की बात आई तो 80 वर्षीय सुखराम जी ने फरमाया कि अभी तो उनके लिए उच्चतम न्यायालय के दरवाजे खुले हैं। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट जायेंगे और इस तरह वे अपने जीवन के अंतिम वर्ष सुख-सुविधओं के साथ गुजारेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें मुकदमों के चलते-चलते बीसियों साल गुजर गये हैं और ये मुकदमे हैं कि कभी थकते नहीं। बोफोर्स तोप वाला मुकदमा तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने तंग आकर उसकी क्लोजर रिपोर्ट का आदेश पास कर दिया। सन् 1984 का सिख कत्लेआम का मुकदमा अभी भी सिसक-सिसक कर चल रहा है। एक आतंकी भाई जिन्हें अफजल गुरु कहते है, उनका तो मुकदमा ही एक नजीर बन गया है जिसकी फ़ाइल में ऐसे पहिये लगे हैं कि वह कही भी किसी भी कारालय में टिक ही नहीं पाती और बिना किसी अल्पविराम के दौड़ती रहती है इधर से उधर और उधर से इधर । भोपाल काण्ड के सबसे बड़े अपराधी 90 साल के एंडरसन भारत लाये जायेंगे और यह तो निश्चित है कि भारत आते-आते वे 91-92 साल के तो हो ही जायेंगे। फिर लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन पर मुकदमा चलेगा। और मेरे विचार में चूंकि वे अमेरीकी नागरिक हैं तो जमानत मिलने में विलम्ब नहीं होगा। और एक आशंका यह भी है कि अमेरिका सीधे- सीधे " नो " कह दे तो फिर इस पर बड़ी-बड़ी टिप्पणियां आयेंगी और बरसों तक इस पर लफ्फाजी होगी। क्या यह मुहिम उन हजारों मृत व्यक्तियों के परिजनों को रेगिस्तान में जलाशय दिखाने जैसी नहीं है? या फिर यह मुहिम इसलिए है कि इतने बड़े नर-संहार में भारत सरकार अब तक मौन साधे रही, जिस कारण जनता में सरकार के प्रति एक उदासीनता की भावना घर कर गई । शायद सरकार के इस कदम से जमी बर्फ कुछ पिघले। </div><br /><div align="justify"><strong>बी.एल. गौड़</strong></div>बी. एल. गौड़http://www.blogger.com/profile/15987022586245018036noreply@blogger.com1