कानून की आँखों पर पट्टी तो इसलिये बंधी रहती है कि न्याय करते समय वह भारी और हलके पलड़े को न देख पाये लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि उस पट्टी का अर्थ है कि चाहे कुछ भी होता रहे उसे देखा नहीं जाये। 16 दिसम्बर सन 2012 को बलात्कार काण्ड का सबसे बर्बर अपराधी आगामी 4 जून को सम्भवतया छूट जाये, यह हमारे कानून की एक बानगी है। 16 दिसम्बर 2012 को जो दामिनी रेप काण्ड हुआ उसमें 6 जानवर पकड़े गये मतलब 6 दरिन्दे पकड़े गये जिनमें सब से छोटा-बच्चा, नाबालिग-अबोध जिसने सबसे घिनोना और बर्बता का परिचय उस बलात्कार में दिया, अर्थात उस घिनोने नाटक का सबसे घिनोने पात्र को आने वाली 4 जून को रिहा कर दिया जायेगा और शायद इस महत्वपूर्ण फैसले में एक वाक्य भी जोड़ा जाये और वह हैं ‘‘बाइज्जत’’। अकसर कई दिल दहलाने वाले मुकदमों में जब भी कोई ऐसा किरदार रिहा होता है तो यही लिखा देखा गया है कि फलाँ-फलाँ को ‘बाइज्जत’ बरी किया जाता है। अगर न्यायालय यह ना भी लिखे तो भी काम चल सकता है पर यह तो चलन है न। अब देखें क्या लिखते हैं उसे रिहा करते हुअे माननीय न्यायाधीश जो बेचारे न चाहते हुअे भी वही करते हैं जो कानून कहता है, वकील कहता है या फिर मौकाये वारदात पर मौजूद गवाह कहता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि मौकाये वारदात से बहुत दूर रहने वाला गवाह भी मौकाये वारदात पर मौजूद हो जाता है। चलिये हम तो इस केस विशेष की बात पर आते हैं जिसने दिल्ली के युवा को मथ कर रख दिया। जन्तर मन्तर और इण्डियागेट पर जो हुजूम उमड़कर एकत्र हुआ था इस फैसले से उसके मन पर क्या बीतेगी और क्या बीतेगी उस लड़की के माँ-बाप पर जिनकी बेटी उन दरिन्दों का शिकार बनी और जो बाद में बिना इंसाफ मिले ही बस इंसाफ की एक उम्मीद लेकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई। और मेरी निजी राय में उसका मर जाना ही अच्छा रहा क्योंकि यदि वह जीवित रहती और नाबालिग को छुट्टा घूमता देखती तो उस पर क्या बीतती तब तो शायद वह प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा मरती।
    नाबालिग और बालिग की सीमा पर जरा गौर कीजिये। नाबालिग यदि 17 साल 29 दिन का है और वह एक जघन्य रेप जैसा घिनोना कार्य करता है तो अधिकतम सजा तीन साल अर्थात तीन साल के बाद उसे मौका दिया जाता है सुधरने का। और इस प्रकार के मामले में जो तथ्य सामने आये हैं वे दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष नाबालिगों द्वारा किये गये दुष्कर्म के मामलों में पिछले 11 सालों में लगभग 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।
    स्कूल के रजिस्टर में दर्ज जन्म की तारीख की वही होती है जो बच्चे के पिता द्वारा बोलकर लिखवाई जाती है। महानगरों की बात को यदि छोड़ दिया जाये तो कितने लोगों के पास किसी नगर निगम का या कमेटी का या ग्राम पंचायत का जारी किया हुआ प्रमाण पत्र होता है तो क्या इस केस में दिल्ली पुलिस का यह कहना जायज नहीं कि इस बर्बर नाबालिगा की हड्डियों का टेस्ट करवाये जाये। परन्तु पता नहीं क्यों जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड कहता है कि इस नाबालिग के हड्डी टेस्ट की कोई आवश्यकता ही नहीं है। आने वाली 4 जून को जिस दिन वह रात रात में बालिग हो जायेगा तो संभवतया छूट कर बिना कोई सजा पाये अपने घर जायेगा । वह फिर से अपनी कक्षा में जाकर अपने साथियों को जो कुछ उसने किया है सुनायेगा और हो सकता है कि बजाय सुधरने को वह कोई मैन ईटर ही बन जाये और फिर से वैसे ही कार्यों में लिप्त हो जाये।
अगर दूर की सोचें तो यह भी हो सकता है कि कल को न जाने कितने ऐसे नाबालिग ऐसे घिनौने करतब करके खड़े हो जायंे यही सोच कर की हम तो नाबालिग हैं और बचपने में किए गये जघन्य अपराध को तो कानून माफ कर देता है। ऐसे में यह अपराध घटने की बजाय और बढ़ सकते हैं। अगर कानून 17 साल 29 दिन के व्यक्ति को नाबालिग मानती है यानी कानून की नजर में वह एक मासूम बच्चा होता है जो नासमझी के चलते वह अपराध कर बैठा लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि बस 17 साल 30 दिन का व्यक्ति अर्थात 18 साल का व्यक्ति केवल एक ही दिन में कानून की नजर में समझदार कैसे हो जाता है। अगर देखा जाए तो उस नाबालिग का दिमाग तो बाकी पांचों अपराधियों से भी ज्यादा तेज तर्रार चला तभी तो उसने सबूतों को मिटाने के लिए कितने घिनोने कामों को अंजाम दिया। इसलिए बालिग और नाबालिग दिमाग के विकास पर निर्भर होना चाहिए न कि उम्र पर। कितने व्यस्क ऐसे होते हैं जिनका दिमागी विकास बहुत कम होता है लेकिन उनकी उम्र काफी होती है।
    पता नहीं क्यों कानून बनाने वालों के कानों पर जूँ नहीं रैंगती कि कानून की किताबों में दर्ज इस तरह के अनेक कानूनों में बदलाव की पहल की जाये।  इसके पीछे हमें तो यही मानसिकता नज़र आती है कि जैसा चल रहा है ठीक है बेवजह जहमत क्यों मौल ली जाये। और फिर जो कुछ भी बीत रहा है वह तो आम जनता के साथ बीत रहा है वे सब तो अपवाद की श्रेणी में आते हैं। उनके लिये तो इस प्रकार के हादसे केवल अपनी राजनीति को चमकाने के काम आते हैं इससे अधिक उनके लिये ऐसी घटनाओं का कोई महत्व नहीं होता।
    यह सब दर्शाता है कि हमारे देश को चलाने वाले कितने  संवेदनहीन होते जा रहे हैं। और साथ ही देश के युवाओं का दिल-दिमाग किस तरह इस सदियों पुरानी व्यवस्था के प्रति क्रोध से लबालब होता जा रहा है। जन्तर-मन्तर या इण्डिया गेट पर लाखों की संख्या में जमा हुए हाथों में जलती मौमबत्तियां लिये जिन लोगों ने वर्तमान व्यवस्था के प्रति जो एक अहिंसक प्रदर्शन किया वह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। यदि यह ढर्रा इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली के युवाओं के साथ-साथ सारे भारत के युवा और विद्यार्थी सड़कों पर एक साथ आ जायेंगे।
बी.एल.गौड़


एक पत्नि झकझोर रही थी गहरी नींद में खर्राटे लेते हुअे पति को। पति जी थे कि आँखें ही नहीं खोल रहे थे। बड़े प्रयास के बाद जगे, तो पत्नि कुछ आश्वस्त हुई और उन आशंकाओं के भंवर जाल से बाहर आई जो उसे घोर चिंताओं में जकड़े हुई थीं। तरह-तरह के विचार उसके मन में आ जा रहे थेः-‘‘न जगे तो क्या होगा, घर कैसे चलेगा, कैसे हमें कोई बचायेगा उन लुच्चे लफंगों से जो इनके जिन्दा और जाग्रत रहते हुअे भी छेड़-छाड़ से बाज नहीं आते।‘‘ खैर वे जगे तो पत्नि ने पहला प्रश्न दागाः-क्या हुआ था जो इतनी गहरी नींद में चले गये ? पति थोड़ा आश्वस्त होता हुआ दाँयें गाल पर हाथ धरकर बताने लगा कि कल हुअे पड़ौसी से झगड़े में कैसे उसने गाल पर घूँसा मारा जिससे एक हिलती हुई दाढ़ निकल गई और तब से ही दर्द से बेहाल था। सो मैंने नींद की कई गोलियां ली और सो गया।
पत्नि सोच में पड़ गई कि वह क्या उम्मीद करे ऐसे पति से जो पड़ौसी से गाल पर मुक्का खाकर बजाय बदला लेने के नींद की गोलियों का सहारा लेता है। सोचने लगी देश की भी हालत भी तो आज इससे कुछ अधिक बेहतर नहीं है।
दुश्मन देश के कुछ उचक्के टाइप के सैनिक आये और हमारे दो वीर सपूतों के सिर काट कर ले गये। हमारे सेना के जवानों का खून खौलने लगा। देश के हर नागरिक का मन दुख और आक्रोश से भर गया। और बड़ी कातर नजर से वह सरकार की ओर देखने लगा। इन्तजार करने लगा सरकार की प्रतिक्रिया की इस जघन्य घटना के प्रति। कई दिन के बाद सरकार ने सोचा कि कुछ तो प्रतिक्रिया उसे देनी ही चाहिये नही तो आने वाले चुनाव में हालत पतली हो सकती है और संभव है कि राजसुख से हमेशा के लिये विदाई हो जाये। तो कुछ मन्त्रियों न कुछ-कुछ बोलना शुरू किया ‘‘हम पाकिस्तान पर दबाव बनायेंगे, हम विरोध जतायेंगे, हम सरहद पर फ्लैग मार्च करेंगे, हम सबूत पेश करेंगे, आदि-आदि।’’ पर किसी ने भी यह नहीं कहा कि हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। अगर हमारे दो सैनिकों के सिर कटे हैं तो हम उसके दस सैनिकों के सिर गोलियों से उड़ा देंगे।
किसी ठोस प्रक्रिया के अभाव में देश के नागरिकों में क्रोध बढ़ने लगा तो हमारे प्रधानमन्त्री जी की नींद खुली या किसी ने उनके कान में कहा कि अब उठ जाओ सोते रहने से बात बिगड़ेगी, तो वे उठे और उन्होंने अपनी सीली हुई आवाज में एक जोश भरी बात कही कि पाकिस्तान को अपनी गलती मान लेनी चाहिये, और उसे अपनी गलती माननी होगी। और नहीं मानने पर परिणाम अच्छे नहीं होंगे और आपसी सम्बन्ध जिन्हें दोनों देशों के बीच मधुरता पैदा करने वाला माना जा रहा था उन्हें बड़ा धक्का लगेगा। और निश्चित रूप में संबन्ध पहले जैसे नहीं रहेंगे।
जब प्रधानमन्त्री जी ऐसा बोले तो दूसरे मन्त्रियों ने भी कुछ-कुछ बोलना शुरू किया और अब सेना प्रमुख भी जोश में बोले कि हमें दुश्मन की ऐसी करतूतों का जवाब देना आता है। अब हमारे सैनिक अब शांत नहीं रहेंगे बल्कि ऐसी करतूतों का तुरन्त जवाब देंगे।
हम तो कहते हैं देर आये दुरूस्त आये। अरे जागे तो सही देश की 125 करोड़ जनता के प्रधानमन्त्री, भले ही आठ दिन बाद ही सही, भले ही मुख्यमंत्री दिल्ली श्रीमति शीला दीक्षित के गलती से निकले ब्यान के बाद ही सही।
देखना ये है कि अब कार्यवाही क्या होती है। वैसे हमारे देश की एक परिपाटी यह भी है कि बड़ी से बड़ी घटना/दुर्घटना की मौत खुदबखुद कुछ समय बाद हो जाती है। क्योंकि इस विकासशील देश की जनता के पास इतना समय नहीं कि सई साँझ के मरे हुअे के लिये रातभर रोती रहे। सरकार को भी इसी बात का इन्तजार रहता है कि अमुक घटना, दुर्घटना या किसी बड़े घोटाले से उपजा तूफान कब शान्त होता है, कब लोग अपने-अपने काम पर लोटते हैं और एक अफसोस मन में लिये दुखी मन से अगली घटना घटने का इन्तजार करते हैं।
हम सबको मिलकर यह प्रयास करना चाहिये कि ऐसे मौकों पर जगी हुई जनता को सोने नहीं देना चाहिये। अत्याचार के विरूद्ध उपजे जोश को शान्त नहीं होने देना चाहिये, किसी न किसी रूप में जोश की वह लौ जलती रहनी चाहिये जिसकी रोशनी सोई हुई सरकार को जगाती है। इस रोशनी की मशाल को जगाए रखने की ताकत अब केवल नौजवानों के हाथों में है और आने वाले समय में देश की बागडोर भी देशके लोग उन्हीें के हाथों में देखना चाहते हैं। साथ ही वे आज के नेताओं का दुश्मन द्वारा किये गये ऐसे बर्बर कृत्य के लिये गिड़गिड़ाता हुआ विरोध नहीं देखना चाहते।


जी हाँ अभी 10-15 दिन पहले दिल्ली में एक सुनामी आई थी जिसने दस जनपथ, जन्तर मन्तर, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली की मुख्यमन्त्री का आवास, गृह मन्त्री का निवास और न जाने किस किस भवन की सीमाओं पर दस्तक दी थी। उसे चेतावनी दी थी कि महोदय ! आप कृपया नींद से जगें और कहा था
‘‘ ऐसे कब तक काम चलेगा पूछ रहा सैलाब’’।
इस भीड़ की सुनामी के सभी लोग उस मेडिकल छात्रा की सपोर्ट में थे और न्याय की माँग कर रहे थे कि जिन गुण्डांे ने उसके साथ दुराचार कर उसे मौत के मुहाने पर पहुँचा दिया था और वह जीवन और मौत के बीच झूल रही थी उन गुण्डों को फाँसी पर लटकाया जाये।
    तो दोस्तो ! जिस सुनामी की मैं बात कर रहा हूँ यह सुनामी थी स्कूल के बच्चों की, काॅलेज के लड़के लड़कियों की, विश्वविद्यालय के उन प्रबुद्ध छात्र-छात्राओं की जो हमारे देश के भविष्य हैं। और इन सब के साथ आये थे दिल्ली में कार्यरत युवक और युवतियाँ। दूसरे और तीसरे दिन से इसमें शामिल होने लगे थे शहर के प्रौढ़ और बुजुर्ग और घर की कमकाजी महिलायें । उसके बाद वे अभियन्ता और अधिवक्ता भी जिनके जमीर ने उन्हें ललकारा था कि उठो और इस सिस्टम के विरूद्ध लड़ रही भीड़ का साथ दो, मूक दर्शक बन कर मत रहो।
    मेरे जैसे 76 वर्षीय कुछ नाकारा लोग भी इस सुनामी को देखने भर गये और शायद सभी ने वहाँ जाकर यह निर्णय लिया हो कि चलो हम यदि शरीर से कुछ नहीं कर सकते तो अपनी कलम पर धार चढ़ायेंग,े उसे तलवार मे तबदील करेंगे और इस भीड़ का साझीदार बनेगा हमारा लेखन। यही सब सोचकर और भीड़ का आँकलन कर कि इस भीड़ में कितने मवाली हैं कितने गुण्डे हैं, मैं चुपचाप अपने घर लौट आया। और जिन्दगी में जो गुण्डे मवाली मैंने देखे हैं उनमें से एक भी उस भीड़ में नज़र नहीं आया, नजर आये तो केवल वे मासूम चेहरे जो तमतमाये हुअे थे एक क्रोध से जो माँग रहे थे न्याय की इस सड़ी हुई व्यवस्था से जो याद दिलाती है एक पुराने नाटक की ‘‘ अंधेर नगरी चैपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा’’ कुछ इस तरह का नाटक था जिसमें राजा ने एक अपराधी को फाँसी देने के लिये एक फन्दा बनवाया था लेकिन उसके गले में फिट न होने पर उसने राजआज्ञा जारी कर दी थी कि अब यह फन्दा उस गले में डाल दिया जाये जिसमें यह फिट आ जाये। मित्रो ! 27 दिसम्बर को यह सुनामी कुछ धीमी पड़ी और अपने मूल स्त्रोत में समा गई क्योंकि उस पीडि़त लड़की को इस दिन बेहतर इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया था।

इस सुनामी ने हमारे हुकुमरानों को, हमारी कार्य कारिणी को, हम पर राज करने वाले राजाओं को, मेरा मतलब नेताओ को कुछ सोचने पर मजबूर किया है। अब सुनामी यह देख रही है कि हमारी यह दस्तक क्या रंग लायेगी। क्या राजपथ पर की गई घोषणायें कानून का रूप लेंगी ? क्या अंग्रेजो के जमाने की मानसिकता लिये हुकुमरानों की सेाच बदलेगी ? और अगर ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप में यह सुनामी फिर लौटेगी। अभी तो एक बाढ़ की शक्ल में आई थी लेकिन यह दोबारा, तिब़ारा जब आयेगी तो सचमुच में उस सुनामी की याद दिलायेगी जिसमें लाखों लोग लापता हो गये थे और बड़े-बड़े ऊँचे आलीशान मकान जमींदोज हो गये थे। फिर उस सुनामी को शायद ही कोई रोक पाये। और लिखते-लिखते यह खबर आई कि आज दरिन्दगी की शिकार वह पीडि़त लड़की यह दुनिया छोड़ गई। उसकी मौत की खबर ने उस मानुषी सुनामी में फिर से भूचाल ला दिया है। तीन दिन राजधानी के दस मेट्रो स्टेशन बंद रहे , रास्तों पर पुलिस का पहरा है। आनन-फानन में सरकार ने फुर्ती दिखाते हुए लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया है, अबव ह राख के एक ढेर में तबदील हो गई है। लेकिन इस राख ने भी एक ऐसा तिलंगा छोड़ दिया है जो न केवल उस लड़की को न्याय दिलाएगा बल्कि संपूर्ण महिला वर्ग के लिए भी कुछ न कुछ अच्छे कदम जरूर उठवायेगा।
    जो कुछ भी अब तक हो चुका है वह अब अंगार पर जमी राख की तह में छुप गया है। इस सब में एक दुखद घटना यह घटी कि एक सिपाही की मौत हो गई। और कारण यह बताया जा रहा है कि सुनामी की भीड़ में जो असमाजिक तत्व शामिल हो गये थे उन्होंने देश के इस वीर सिपाही को निर्दयता से मार डाला। यह कह रहा है उसका अपना महकमा और पुलिस के आला अफ़सर जिन्होंने बड़ी तीव्रता से इस काण्ड को अन्जाम देने वाले आठ आदमियों को पकड़ भी लिया है। ईश्वर करे पकड़े गये लोग सही हांे पलान्ट किये गये नहीं, और यदि वे निर्दोष हैं तो ईश्वर उनकी मदद करे कि वे छूट जायें।
    जो सिपाही इस आन्दोलन का शिकार हुआ वह हमसे अलग नही था। वह उसी समाज की एक इकाई था जिसके हम अंग हैं। वह भी हममें से ही किसी न किसी का सगा था। दोषियों को सजा अवश्य मिले। लेकिन इसमें कितने विरोधाभास हैं। चश्मदीद गवाह कर रहा है कि मैंने उन्हें गिरते हुअे तब देख जब वे भाग रहे थे, डाक्टर कहता है कि अन्दरूनी या बाहरी चोट के कहीं निशान नहीं थे लेकिन पुलिस कहती है कि थेे अब तो न्यायालय ही अपनी तराजू पर तोल कर बतायेगा कि सत्य क्या है। यह अलग बात है कि कालान्तर में आज के साक्ष्य समय की गर्द में विलीन हो जायें और न्याय उसी प्रकार का हो जैसा होता आया है।
    न्याय की बानगी आप वर्षों से देखते आये हैं। जेलें भरी पड़ी हैं ऐसे कैदियों से जो वर्षों से सजा काट रहे हैं जिन्हें महीनों की सजा होनी थी उनके किये गये जुर्म की। न तो जरूरत के मुताबित जज हैं न अदालते हैं। लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हैं और सरकार के पास इस फालतू काम के लिये न पैसा है न कोई नरेगा की तरह योजना ही। सब राज करेगें, अपना अपना कार्यकाल पूरा करेंगे और अपने उस सरकारी घर में जाकर विश्राम करेंगे जो सरकार उन्हें इस प्रकार से देश के लिये की गई सेवा के उपरान्त इनाम बतौर देती है।
अब तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। हरियाणा की खापों के चैधरी कह रहे हैं कि ऐसे दरिंदों को सजा दी जाए पर फंासी की नहीं। सरकार पेशोपेश में है, दुआ कर रही है भगवान से कि भगवान! बस एक बार इस संकट से उबर जाए, फिर की फिर देखेंगे।
देखिए और इंतजार कीजिए कि क्या-क्या उपाय कर पाती है नारी जाति की अस्मिता को बचाने के लिए हमारी सरकार।

‘पदोन्नति में भी आरक्षण होना चाहिय’ इस मुद्दे को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती बुद्धवार 12 दिसम्बर को राज्यसभा में भड़क गईं। अब यह जो भड़कना है किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी हो सकता है। यह निर्भर करता है कि व्यक्ति विशेष में कितना ज्वलनशील विचार जोर मार रहा है। जब व्यक्ति के अन्तस में विचारों की ज्वाला धधक रही होगी तभी वह अपनी वाणीं के द्वारा भड़क सकता है अन्यथा नहीं।
मायावती जी का भड़कना स्वाभाविक है। जिस वोट बैंक के सहारे वे बार-बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचती हैं उसके हितों का ख्याल रखना और वह भी आवश्यकता से अधिक उनकी अपनी जरूरत है।
वैसे न्यायिक दृष्टि से देखा जाये तो प्राकृतिक न्याय तो यह कहता है कि जब एक बार भर्ती के समय आरक्षण का लाभ किसी व्यक्ति को दे दिया गया तो फिर तो सभी एक ही प्लेटफार्म पर आ गये। उसके बाद तो अपनी-अपनी काबलियत के हिसाब से पदोन्नति होनी चाहिये। लेकिन ऐसा होता नहीं है।
अभी तक हमें तो यही बात समझ में नहीं आई कि पदोन्नति में आरक्षण में नया क्या है। लगभग 30 साल तक मैं स्वयं ही रेल विभाग में देखता रहा हूँ कि जब भी पदोन्नति की बात आई तो वहाँ पर यह आरक्षण सदैव ही मौजूद था। हमारे साथ के और हमसे जूनियर लोग कोटे के तहत अर्थात पदोन्नति में आरक्षण कोटे के तहत हमसे कहीं आगे निकल कर हमारे ही अधिकारी बन गये, तो यह कोटा तो वहाँ बहुत पहले से मौजूद है फिर इसमें नया क्या है।
खैर छोडि़ये हो सकता है हमारी समझ का ही फेर हो, मुद्दा तो यह है कि मायावती जी राज्यसभा के सभापति श्री आमिद अंसारी पर भड़क गईं और जोश में आकर वो अपने सभी सांसदों के साथ वैल में पहुँच गईं। उनकी भड़क से जो चिंगारियाँ निकलीं उनसे बेचारे सभापति जी असहज हो गये बल्कि यों कहिये कि आहत हो गये और दुखी होकर अपने कक्ष में चले गये बिलकुल उसी प्रकार जिस प्रकार केकई अपने कोप भवन में चली गईं थीं। अन्तर केवल इतना था कि केकई रूंठ कर गईं थीं और सभापति जी दुखी होकर।
उसके बाद उनका दुख बाँटने के लिये कई सांसद उनके कक्ष में गये और इस दुखद घटना पर अफसोस जताया। मायावती जी की यह भड़कने वाली बात राज्यसभा की कार्यवाही में से बाहर निकाल दी गई। प्रधानमंत्री जी ने अपना संदेश भेजकर सभापति जी के घायल मन पर मरहम लगाया।
सुनते हैं कि बाद में मायावती जी कुछ नरम पड़ गईं जिससे सभापति जी को बड़ी राहत मिली और वे बड़े खुश हुअे और नार्मल होकर उन्होंने राज्यसभा के स्थगन समय के पश्चात कार्यवाही को फिर से सुचारू रूप से शुरू किया गया।
सुना है इसी बीच श्री मुलायम सिंह भी भड़के और उन्होंने कहा कि इस प्रकार हर बार प्रमोशन में आरक्षण रखने से तो सारी व्यवस्था ही खराब हो जायेगी और हमारे जनाधार का क्या होगा।
वे पूर्व की तरह राज्यसभा से वाक-आउट कर गये। औपचारिकतावश प्रधानमंत्री जी ने उन्हें मनाने के लिये अपने कई दूत भेजे। लेकिन परिणाम शून्य ही रहा अर्थात् वे वाक-आउट के बाद वाक-इन नहीं हुअे। सरकार को मौका मिला जाँचने का कि भारी कौन है।
तो मायावती जी की भड़क ही भारी निकली और उनकी ही बात मानी गईं। यह बिल  ‘‘हर प्रमोशन में आरक्षण’’ प्रेषित होना बाकी है बल्कि इसे पास हुआ सा ही समझो। जिन दूसरी पार्टियों ने अपना गणित लगा लिया है कि इस बिल से अपने को क्या फायदा होगा वे इस बिल का सपोर्ट कर रही हैं। मुलायम सिंह जी के इस बिल के विरोध में जो तेवर, जो भड़क दृष्टिगोचर हो रही है वह इस कारण है कि इस बिल के कानून बन जाने पर जो भी लाभ होगा वह केवल एस.सी./एस.टी. को होगा पिछड़ों को नहीं और जब पिछड़ों को इससे कोई लाभ नही ंतो मुलायम सिंह जी क्यों मुलायम पड़ें।
अन्त विजय ही तो असली विजय होती है। नतीजा यह निकला कि मायावती जी की भड़क ने मुलायम सिंह जी की भड़क को पटकनी दे दी।
हम सबको इस ‘भड़क’ का शौर्ट टर्म कोर्स अवश्य करना चाहिये आजकल इसी से मुद्दे सुलझते हैं।

श्री बी.एल.गौड़


हम तेजी से प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन अपनी जरूरतों के साथ-साथ समाज में सक्रिय योगदान देने वाले लोगों को जब सम्मानित किया जाता है तो उनका मनोबल बढ़ता है और अन्य लोग भी अच्छे कार्यों के लिए प्रेरित होते हैं। यह बात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद जय प्रकाश अग्रवाल ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् (आइसीसीआर) स्थित आजाद भवन में कही। मौका था सामाजिक एवं साहित्यिक संस्था उद््भव द्वारा आयोजित सांस्कृतिक सम्मान का।
कार्यक्रम में उद्भव शिखर सम्मान से आइआरएस संगीता गुप्ता, साहित्यकार बीएल गौड़, कानपुर के ज्योतिषाचार्य रत्नाकर शुक्ल, महाराष्ट्र के समाजसेवी संभाजी एन. गित्ते, सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता चंद्रशेखर आश्री के अलावा उद्भव विशिष्ट सम्मान से शिक्षा अधिकारी एम.एल.अम्भोरे, देहरादून से आए साहित्यकार रूपनारायण सोनकर, शिक्षाविद् वासुदेव पंत को सम्मानित किया गया। उद्भव मानव सेवा सम्मान से समाज सेवी प्रवीण धींगरा, रामबिलास अग्रवाल, अनिल वर्मा, साहित्यकार डा. लालित्य ललित, शिक्षाविद् स्वाति पूर्णानंद को सम्मानित किया गया। मंच का संचालन उद्भव के महासचिव और साहित्यकार डा. विवेक गौतम ने किया। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में सलाहकार हिंदी आइसीसीआर अजय गुप्ता, कवितायन के अध्यक्ष वी. शेखर, शिक्षाविद् अशोक कुमार पांडेय, भारत भूषण गुप्ता, वरिष्ठ साहित्यकार डा. अरुण प्रकाश ढौंडियाल मौजूद थे। इनके अलावा शिक्षाविद सीपीएस वर्मा, समाजसेवी एस.एल.चौरसिया, हरिराम द्विवेदी, दिनेश उप्रेती और रामचंद्र बडोनी का विशेष योगदान रहा।


सूरज अब तू अपने घर जा
साँझ लगी ढलने
मैं भी धीरे-धीरे पहँुचँू
घर आँगन अपने।

सुबह सवेरे फिर आ जाना
उसी ठिकाने पर
पंक्षी जब नीड़ों से निकलें
फैला अपने पर
तब हम दोनों साथ चलेंगे
फिर संध्या की ओर
तुम अस्ताचल ओर सरकना
मैं नदियों के छोर
घर में बाट जोहते होंगे
कुछ मेरे अपने।

मन-भावन का मिलना जग में
केवल सपना है
अमर प्रेमी भी इस दुनिया में
एक कल्पना है
सारी रात बदल कर करवट
जब हमने काटी
ऐसे कब तक काम चलेगा
पूछे यह माटी
बुद्धि कहे मन से सुन पागल
देख न तू सपने।

तू अविनाशी अजर अमर तो
मैं भी उसका अंश
तुझको व्याधि नहीं छू पाती
पर मैं सहता दंश
सबसे बड़ी पीर है मेरी
मिला ना कोई मीत
मन भी कितना मुरख निकला
पग-पग ढँूडे प्रीति
रहा दौड़ता हिरन सरीखा
नहीं मिले झरने।



बी.एल. गौड़


जैसे ही सर्दी की शरूआत हुई तो माननीयों के मन में हूक उठी कि क्यों न हम अपनी सबसे बड़ी पजायत का भी एक सत्र बुला लें। वैसे तो इसके लिये सरकारी सांसदों की अर्थात् सरकार की मंशा ही काफी होती है लेकिन औपचारिकतावश विपक्ष से भी राय कर ली गई। अकसर देखा जाता है कि संसद के पुस्तकालय में अर्थात लगभग निःशुल्क चलती संसद कैंटीन में वे सांसद एक ही मेज पर काफी पीते मिल जाते हैं जो अभी-अभी ब्रेक से पहले एक-दूसरे के गिरेबान तक हाथ बढ़ा रहे थे, आस्तीनें चढ़ा रहे थे और ऐसी कठोर भाषा का प्रयोग कर रहे थे कि यदि लखनऊ के नवाबों का जमाना होता तो आधे नवाब और आधी बेगमें बेहोश हो जातीं।
लखनऊ का एक किस्सा यहाँ बयान करने से विषयान्तर नहीं होगा, वह कुछ इस प्रकार हैः-दिल्ली का एक व्यापारी किसी कार्य से लखनऊ गया। इक्केवाले से मुखातिब हुआ ‘‘ओ इक्केवाले! हजरतगंज चलेगा’’ इक्केवाल ने उसकी बात को कान ही नहीं दिया। फिर दूसरे से उसने इसी टोन में बात की लेकिन उसने भी उससे बात नहीं की। तब उसने टोन बदली ‘‘भय्या इक्केवाले! क्या हजरत गंज तक चलोगे’’ इस पर इक्केवाले ने कहा ‘‘भय्या! पढ़े-लिखे लगते हो, किसी को भी थोड़ी तहज़ीब और प्यार से ही पुकारा करो। हम तो खैर वक्त के मारे हैं चल ही पड़ते लेकिन हमारा घोड़ा हमसे ज्यादा तमीजदार है यह बिलकुल भी तैयार नहीं होता’’ इस जरा सी बात ने उस व्यापारी को थोड़ी तमीज जरूर सिखा दी होगी।
लेकिन आप ऐसी कोई उम्मीद संसद के गलियारे से न पालें। अभी कुछ दिन पहले ही कुछ माननीयों की भाषा के नमूने आपको समाचार-पत्रों में पढ़ने को मिले होंगे। उदाहरणतयाः-‘‘कुछ दिनों के बाद औरत तो पुरानी हो जाती है’’ (कानपुर में कुछ लेखकों और कवियों के बीच एक मंत्री का संभाषण)। दूसरा जब केजरीवाल के लगातार आरोपों से श्री खुर्शीद आलम आजिज आ गये तो ताव खा गये ‘‘केजरीवाल मेरे संसदीय क्षेत्र में आकर दिखायें, आ तो जायेंगे लेकिन क्या जिन्दा लौट पायेंगे’’।
श्री खुर्शीद आलम के इस संभाषण के बाद सरकार ने सोचा कि आदमी ठीक है इसकी प्रमोशन होनी चाहिये तो उन्हें एक साधारण से मंत्रालय से हटाकर विदेश मंत्री का पद नवाजा गया। यही हाल दूसरे पक्ष का भी है एक सभा में गुजरात के मुख्यमंत्री किसी विशेष व्यक्ति का नाम लिये बिना कह बैठे ‘‘अरे भई उनकी गर्लफ्रैंड तो 50 करोड़ की है’’ बड़ा बायवैला मचा। ऐसे सभी संभाषणों पर प्रतिक्रियायें भी आईं। दो मौकों पर स्त्री संगठनों की ओर से बड़ी भर्तसना की गई। लेकिन जैसा कि सर्वविदित है ऐसी बातों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। हमारे लोकतंत्र की बस यही एक विशेषता है जो इसे दुनिया के सभी लोकतंत्रों से ऊपर रखे हुअे है। यहां बड़े से बड़े घाटाले हो जायें चाहे वी.आई.पी. गैलरी में कत्ल हो जाये पर कहीं कुछ भी नहीं होता। हाँ मुकद्दमे जरूर चलते हैं कुछ दिनों कुत्ता-घसीटी भी होती है, किसी-किसी को कुछ दिन का कायाकष्ट भी होता है पर अंततः कुछ नहीं होता। सब छूट छाट कर बाहर आ जाते हैं। फिर संसद या विधानसभा की शोभा बढ़ाते हैं, मौज मनाते हैं, फिर से बगुले जैसे वस्त्र धारण कर वोट माँगने निकल पड़ते हैं। बस अपनी यही खराब आदत है कि लिखते-लिखते अपने विषय से भटक जाते हैं। हम आपसे कह रहे थे कि संसद का शरदीय सत्र शुरू हो चुका है और इस लिये भी जरूरी है कि इसमें कुछ ऐसे मुद्दों पर चर्चा होगी जो काफी गर्म हैं जैसे खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश। पक्ष कहता है कि यह देश के लिये लाभदायक है और विपक्ष कहता है कि अति नुकसानदायक है। जब इस पर बहस होगी तो चिनगारियां निकलेंगी और आपको ठंड के मौसम में कुछ गर्मी का अहसास होगा।
इस एफ.डी.आई के चक्कर का या इसमें छिपे भेद का तो पता नहीं लेकिन इतना पता है कि जो दीपावली अभी-अभी बीती है वह पूर्णरूप से मेड इन चाइना थी। क्या लडि़यां, क्या पटाखे और यहां तक कि हमारे गणेश लक्ष्मी भी। तमाम विदेशी समानों से बाजारों को पाट दिया गया था और बेचारे देशी कारीगर और कारखानेदार हाथ पर हाथ धरे दीपावली पर मातम मना रहे थे। यह आलम एफ.डी.आई. के आने से पहले का है आने के बाद तो आलम क्या होगा?
खैर अब आप खुद देखिये और संसद के गलियारे में होती गर्म-गर्म बहस का आनन्द लीजिये।


हमराही