29
अगस्त





संन्यासी हो गया सवेरा
जोगन पूरी शाम हुई
छली रात झूठे सपनों ने
यूंही उमर तमाम हुई।

मन ने नित्य उज़ाले देखे
अंतरमन की शाला में
कर लें दूर अंधेरे हम भी
सोचा बार—बार मन में
तन ने किये निहोरे मन के
मत बुन जाल व्यर्थ सपनों  के
मयखाने के बाहर तन की
हर कोशिश नाकाम हुई।

मटकी दूध कलारिन लेकर
मयखाने से जब गुज़री
होश में आये पीने वाले
मन में एक कसक उभरी
इक पल उनको लगा कि उसने
आकर मदिरा हाथ छुई
पीने वालों की नज़रों में
बेचारी बदनाम हुई।

यों तो मिलीं हजारों नज़रें
पर न कहीं वह नज़र मिली
चाहा द्वार तुम्हारे पहुंचूं
पर न कहीं वह डगर मिली
तुम कहते याद न हम आये
हम  कहते कब बिसरा पाये
सारी उमर लिखे ख़त इतने
स्याही कलम तमाम हुई।

सोचा अब अंतिम पड़ाव पर
हम भी थोड़ी सी पी लें
मन में सुधियां जाम  हाथ में
अन्त समय जी भर जी लें
जब तक जाम अधर तक आया
साकी तभी संदेशा लाया
ज़ाम आख़िरी पी लो जल्दी
देखो दिशा ​ललाम हुई।

29
अगस्त




इस मन का पागलपन देखूँ
या जर्जर होता मन देखूँ
देखूँ  सपनों के राजमहल
या यादों के उपवन  देखूँ  ।

इक मीठी याद भुलाने को
क्यों एक उमर कम पड़ती है
क्यों जग से जाने से पहले
हर सांस सांस से लड़ती है
फिर, अंत समय कहती बाती
तम  देखूँ   या ईंधन  देखूँ  ।

धरती के कण—सी उमर मिली
पर्वत—से पाले मंसूबे
अब कुछ तो हम पूरे कर लें
क्यों रहें कशमकश में डूबे
क्यों अंत समय यह प्रश्न रहे
मैं तन  देखूँ   या मन  देखूँ  ।

पल अंतिम आंखें रही खुली
इसलिए कि शायद तुम आओ
वह राग बसा जो रग—रग में
तुम शायद फिर से दुहराओ
अब कहता मन न स्वपन देखूँ
अब देते विदा स्वजन  देखूँ  ।

उन्मीलित पलकें खोज रहीं
जीवन के रंगीं, सपनों को
इस जुटी भीड़ में ढूंड रहीं
कुछ गैरों को, कुछ अपनों को
अब होतीं बन्द पलक देखूँ
या होते सजल नयन  देखूँ  ।


22
अगस्त



चलो मन अब तुम ऐसे देश
जहाँ पर नयनन बरसे नेह
जहाँ पर सीता—सी हों नारि
जहाँ के नर हों सभी विदेह।

जहाँ पर हो कोयल की कूक
भ्रमर की गुंजन का हो गान
जहाँ पर तितली हों आजा़द
निडर हो पक्षी भरें उड़ान
जहाँ पर हो निर्मल—सा नीर
जहाँ पर हो मुरली की तान
जहाँ पर हो राजा का न्याय
बड़ों का होता हो सम्मान
किसी के आँगन उतरे चाँद
तो वन्दनवार बँधे हर गेह।

जहाँ हो अलगोजे पर गीत
पवन सँग चूनर के रँग सात
जहाँ हो गंगाजल—सा प्यार
जहाँ हो लक्ष्मण जैसा भ्रात
जहाँ हो सागर एक विशाल
तैरते जिस पर हों जलयान
जहाँ हो सागर एक विशाल
तैरते जिस पर हों जलयान
जहाँ की धरती पर हो धर्म
जहाँ हों भरे हुए खलिहान
जहाँ पर मोर पुकारें मेघ
धरा पर बरसाओ तुम मेह।

21
अगस्त



आ गया फिर से वही दिन
बोझ कन्धों पर उठाये
चल रहा है अनमना—सा
दर्द अन्तस में छुपाये।

बढ़ रहा लेकर विकल मन
ताप से जलता हुआ तन
जा रहीं पगडण्डियॉ सब
पार जंगल के घने वन
तू कहाँ जा कर रूकेगा
प्यास मन की बिन बुझाये।

किस तरह की यह उदासी
नीर बिन ज्यों मीन प्यासी
और थोड़ी दूर चल तू
साँझ बैठी है रुँआसी
कौन उसका हाथ थामे
कौन घूँघट को उठाये।

तू निशा के द्वार जाकर
चैन की कुछ साँस लेगा
स्वपन माया के रचेगा
भोर को फिर चल पड़ेगा
बिन कोई कारण बताये
पीर की गठरी उठाये।

हमराही