गिरते निर्झर का गीत लिखूं
या लिखूं नगर की चहलपहल
या सूर्योदय के स्वागत में
मैं लिखूं भोर की कुछ हलचल
जब बिखरा ईंगुर धरती पर
आया मंदिर से शंखनाद
कानों से आकर टकराया
वह परम सत्य वह चिर निनाद
इस मन की दशा न रहती थिर
यह तो पारद सा है चंचल
मैं कह्ता पीर बड़ी मेरी
है दुखी बहुत अंतस रहता
पर गर्जन कर सारंग कह्ता, मैं
तुमसे कहीं अधिक बहता
बस अब न रहा अंतर कोई
अब तुम भी मुझ से हुए विरल
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
7 टिप्पणियाँ:
इस मन की दशा न रहती थिर
यह तो पारद सा है चंचल
मन सच ही पारे के समान स्थिर नहीं रह पता ..सुन्दर अभिव्यक्ति
मैं कह्ता पीर बड़ी मेरी
है दुखी बहुत अंतस रहता
पर गर्जन कर सारंग कह्ता, मैं
तुमसे कहीं अधिक बहता
बस अब न रहा अंतर कोई
अब तुम भी मुझ से हुए विरल
बस यही शाश्वत सत्य है……………बेहद उम्दा अभिव्यक्ति।
मन को छू जाने वाली कविता है । आपने चिंतन निर्झर को इस तरह छ्न्द में बाँध कर स्वयं को अभिव्यक्त ही नहीं अनुशासित भी कर दिया है । अगर अन्यथा न लें तो कहूं .... कविताएं व्यक्ति के चिंतन और संस्कारों का दर्पण होती हैं । आप व्यक्ति से न भी मिलें तो उसकी कुछ कविताएं पढ़ कर उसके विषय में बहुत कुछ कह सकते हैं । आपकी यह कविता आपके भावुक व्यक्तित्व में सीखे गए अनुशासन की उपस्थिति दर्ज करती है । मैं आपकी कविता की लगातार प्ररीक्षा करता हूँ ।
बहुत सुंदर भावमयी रचना ... आगे भी आपकी रचनाएँ पढना चाहूंगी ... फोलो किये जा रही हूँ ... शुभकानाएं
सुंदर भावभरी अभिव्यक्ति.
एक बार यहाँ भी देखें ...
http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/20-304.html
"मैं कह्ता पीर बड़ी मेरी
है दुखी बहुत अंतस रहता
पर गर्जन कर सारंग कह्ता, मैं
तुमसे कहीं अधिक बहता
बस अब न रहा अंतर कोई
अब तुम भी मुझ से हुए विरल"
बेहद संवेदनशील और सारगर्भित रचना. आभार.
सादर
डोरोथी.
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