हंसुली जैसा चाँद निकलकर जब छत पर आया
सुधियों का चंदनवन मेरे अंतस उग आया
पारद बनकर ये पाजी मन कण कण बिखर गया
धुंधला सा इक चित्र किसी प्रतिमा का निखर गया
इक पल ऐसा लगा कि जैसे नूपुर कहीं बजे
दूजे पल यों लगा कि मेरा मन था भरमाया
बीती सारी उमर ढूँढ़ते ताल कहीं जल के
काश कोई लौटा कर लाता बीते पल कल के
नरम हथेली धर मांथे पर कोई जगा गया
पता चला अवचेतन द्वारा चेतन छला गया
आज सवेरे आकर जब कुछ बोल गया कागा
हर आहट पर लगा कि जैसे मनभावन आया
थके थके से अश्व सूर्य के धीरे आज चले
स्वर्णमयी संध्या आ पहुंची घर घर दीप जले
रहा सोचता बैठा बैठा उठ कर कहीं चलूँ
या रत रहूँ प्रतीक्षा में बन दीपक स्वयं जलूं
घिर घिर आई रात अँधेरी चाँद नहीं आया
है यह मेरी नियति कि मैंने सदां शून्य पाया
बी एल गौड़
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
8 टिप्पणियाँ:
थके थके से अश्व सूर्य के धीरे आज चले
स्वर्णमयी संध्या आ पहुंची घर घर दीप जले
रहा सोचता बैठा बैठा उठ कर कहीं चलूँ
या रत रहूँ प्रतीक्षा में बन दीपक स्वयं जलूं
घिर घिर आई रात अँधेरी चाँद नहीं आया
है यह मेरी नियति कि मैंने सदां शून्य पाया
जीवन दर्शन की सुन्दर रचना ……………यही शाश्वत सत्य है।
achchhi post
खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
har pangti sunder hai.
बहुत सुन्दर लगा हंसुली जैसा चाँद|
बसंत पंचमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ|
थके थके से अश्व सूर्य के धीरे आज चले
स्वर्णमयी संध्या आ पहुंची घर घर दीप जले
रहा सोचता बैठा बैठा उठ कर कहीं चलूँ
या रत रहूँ प्रतीक्षा में बन दीपक स्वयं जलूं
घिर घिर आई रात अँधेरी चाँद नहीं आया
है यह मेरी नियति कि मैंने सदां शून्य पाया
बहुत ही सुंदर रचना...बहुत अच्छा लगा पढ़कर...आपका ब्लॉग भी फॉलो कर रही हूं....ताकि आगे भी अच्छा पढ़ने को मिले...
चित्र बहुत सुंदर है...
इससे पहले
कि ये ताले खुलें
और अंतस में बसे
सीधे सरल से भाव हों कलुषित
सुन मेरे पारद सरीखे मन
लोट चल तू फिर उसी परिवेश में
wah.ek-ek shabd man ko choonewala.
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