अपनापन
जब भी खोलता हूँ
वातायन के कपाट
पाटा हूँ
दूर तलक फैला घना वन
इसके अतिरिक्त
कोहरा-सन्नाटा
उजाले के साथ मिलकर
साजिश रचता अन्धेरा
वन्य जीवों की बातचीत
पक्षियों के गीत
गीदड़ और भेडियों का
छेड़ा हुआ राग
आरोह-अवरोह
उलझन-ऊहापोह
इससे पहले क़ि यह परिवेश
मेरे भीतर प्रवेश करे
चल पड़ता हूँ
साथ लिए
तन-मन -चेतना -ध्यान , और
अर्जित ज्ञान
किसी पदचाप के पीछे
सोचता हुआ
शायद यहीं कहीं छिपा है
वह परिवेश मनभावन
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
1 टिप्पणियाँ:
इससे पहले क़ि यह परिवेश
मेरे भीतर प्रवेश करे
चल पड़ता हूँ
साथ लिए
तन-मन -चेतना -ध्यान , और
अर्जित ज्ञान
किसी पदचाप के पीछे
सोचता हुआ
शायद यहीं कहीं छिपा है
वह परिवेश मनभावन
बहुत सुंदर......गहरे भाव उकेरती कविता ......!!
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