पाहन बहुत तराशे हैं
दूर दूर तक सहरा में
हमने ताल तलाशे हैं
इक सूरत अमर बनाने को
पाहन बहुत तराशे हैं l
जब मूरत बन तैयार हुई
तब सोलह सिंगार हुए
काजल बिंदी पाँव महावर
लहंगा चूनर हार हिये
हमको ऐसा लगा की हम तो
कई जनम के प्यासे हैं l
कितनी भी सुघड़ गड़े कोई
पर ,मूरत बोल नहीं पाती
लाख जतन करले कोई
न प्राण प्रतिष्ठा हो पाती
क्यों लगता चोपड के फड पर
हम हुए पराजित पासे हैं l
जन्म जन्म की बात करें तो
पिछले जनम नदारद हैं
कैसे अच्छी ख़बर मिले ,अब
कहाँ सतयुगी नारद हैं
अब कैसे मिले खुशी कोई
हम तो जनम उदासे हैं l
बी एल गौड़
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
1 टिप्पणियाँ:
सर आपकी कविताएं बहुत अच्छी हैं। अगर आप अपने संस्मरणों को भी यहां प्रकाि’ात करें तो हमें उन्हें जल्दी पढ़ने का मौका मिलेगा।
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