ऐसा क्यों होता है
की हम
उम्र के अंतिम पड़ाव तक
पहुँचते - पहुँचते
काठी के साथ - साथ
कद में भी घिस जाते हैं
शेष बची उमर
ज्यों ज्यों घटती है
जीने की ललक
त्यों त्यों बढती है
अभाव :-
धन के नहीं
अपनेपन के
बढ़ जाते हैं
लगने लगता है दिन
अपनी उमर से बड़ा
और रात
तय अवधी से अधिक लम्बी
परिवार
शतरंजी खानों में बंटकर
खेलता है खेल
शै और मात के
ऐसे हालात में हम
दो नहीं
कई कई पाटों के बीच
पिस जाते हैं
रिश्तों के
प्यार से लबालब घाटों में
न जाने कब
बारीक सूराख हो जाते हैं
और उम्र के
इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते
सारे घट ris jaate hain
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
3 टिप्पणियाँ:
आपकी इस रचना ने यथार्थ बोध करा दिया………………जीवन चिन्तन भरा है …………सोचने को मजबूर करती है रचना।
उम्र के उस पड़ाव का यथार्थ चिन्तन..बेहतरीन ढंग से शब्दों में पिरोया है.
बहुत अच्छी कविता है । बधाई..
11वीं पँक्ति में अभाव के सामने से :- हटा दें ।
18वीं पँक्ति में अवधी के स्थान पर अवधि कर दें ।
अंतिम पँक्ति - सारे घट ris jaate hain
सारे घट रिस जाते हैं कर दें ।
आशा है छोटे भाई के अपनापे को अन्यथा न लेंगे । सादर ।
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