झुर्रियों में इतहास समेटे
गंभीर चेहरे
करते हैं बयां हकीकत
चिकने सपाट चेहरों से
तुम्हरे हमारे चेहरों का अंतर
परिणाम है आदान प्रदान का
हमारी ओर से आदान हुआ
पर तुमाहरी ओर से प्रदान नहीं हुआ
जिस तरह
गाँव से शहर को
पलायन तो हुआ
पर पुनरागमन नहीं हुआ
मांगती रह गई हिसाब
श्यामल सांझ उजले सवेरों से
लैब से खिलने लगे
बे मौसम फूल
हंसने लगे लोग बेमतलब
तभी से बन गया है मन
छोड़ यह परिवेश कहीं जाने का
देख कर दुर्दशा इन्सानित की
इंसानों के बीच
जहां दूर तलक फैली कीच ही कीच
कोई कमल नहीं
पूछते हैं प्रशन उजड़े गाँव
चमकीले सहारों से
प्रस्तुतकर्ता
बी. एल. गौड़
3 टिप्पणियाँ:
lab jaise lafzon ka poetry me prayog pehli baar dekha hai... naya bimb hai, umdaa hai...
आज का कडवा सच कह दिया…………………सुन्दर प्रस्तुति।
इस जमाने की सच्चाई । बहुत अच्छी लगी कचिता। आभार।
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