तरक्की

आदमी बहुत तरक्की कर गया है
संवेदनहीनता की
सारी हदें पार कर गया है

अब
आदमी का मरना ,या
सरेआम मार दिया जाना
महज एक सनसनीखेज़ ख़बर के अलावा
और कुछ नहीं होता
और इस ख़बर की उमर भी
बुलबुले की उमर के बराबर होती है
वास्तविकता तो ये है
की अब
आदमी दो भागों में विभक्त हो गया है
बाहर से पहले जैसा ज़िंदा
लेकिन
भीतर से मर गया है

आदमी को इंसान बनाने के लिए
जरूरी है एक आसव
जिसे तैआर करने के लिए
जरूरी हैं कुछ जड़ी बूटियाँ
जैसे
गीत ,कविता ,कहानी
दोहा,मुक्तक और ग़ज़ल
सबको बराबर मात्रा में लेकर
मिलाकर उतना hi दर्देजल
घूँट -घूँट कर पीना होगा
तभी बच पायेगा
आदमी का आदमीपन
और इसके लगातार सेवन से
आप देखेंगे
क़ि बदल गया है आदमी
और वह अब
आदमी से इंसान बन गया है

मत पूछो प्रशन कोई हमसे
उत्तर से और जनम लेंगे
अंतस में जो बचे शेष वे
आंसू बनकर छलकेंगे

जाने कितनी मन्नत मानीं
दर कितनों पर कर जोर झुके
गर मिला कहीं भी देवस्थल
तो पाँव वहाँ पर स्वयं रुके
तब किसी पुजारी ने आकर
इक बात कही यों समझाकर
करम लिखे जो मांथे पर वे
नहीं तिलक से बदलेंगे

हम रहे खोजते प्रेम डगर
ना जाने कहाँ विलीन हुई
घर भीतर खोया अपनापन
मानवता बन कर उड़ी रुई
बढ़ती हुई भीड़ में शायद
खोया कहीं आदमीपन
कितनी भी कसो मुट्ठ्याँ तुम
रजकण बाहर ही निकलेंगे

बी एल गौड़

तू मुझे भी साथ ले चल

तू मुझे भी साथ ले चल
झूमकर बहते पवन
है मुझे चूना उसे जो
जा बसा नीले गगन

देकर दिलाशा वह गया
मैं लौटकर फिर आऊँगा
ताप हर लेगा तुम्हरा
पुष्प जो मैं लाऊँगा
टाक नित सूनी डगर को
थक चुके हैं अब नयन

गर न पाया वह गगन तो
पार सागर के चलेंगे
तीव्र गति का यान लेकर
पार हर दूरी करेंगे
वह कहीं भी तो मिलेगा
घाट-घाटी या घने वन
ये न जाने कौन मन की
प्यास को देता बढ़ावा
और इस ढलती उमर में
फूटता सुधिओं लावा
कौन कब आया कहाँ पर
पहन कर पीले वसन

पा न पाये हम उसे तो
खा रहे गंगा कसम
मान कर यह झूंठ था सब
तोड़ लेंगे हम भरम
सोच कर मित्थ्या जगत ये
हम करेंगे वन गमन
बी एल गौड़

आवाजों वाला घर

जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
लोह लक्कड़
ईंट पत्थर
काठ कंकड़ से खड़ा कर
द्वार पर पहरा बिठाता हूँ

जी हाँ
मैं घर बनाता हूँ
एक दिन
मेरे भीतर का मैं
बाहर आया
चारो ओर घूमकर
चिकनी दीवारों पर
बार बार हाथ फेरकर
खिड्किओं और दरवाजों को
कई कई बार
खोलकर -बंदकर
संतुष्टि करता हुआ बोला :
क्या ख़ाक घर बनाते हो
मैं बताता हूँ तुम्हे
घर बनाना
घर बनता है
घर के भीतर की आवाजों से :
चढ़ती उतरती सीडिओं पर
घस-घस
बर्तनों की टकराहट
टपकते नल की टप टप
द्वार पर किसी की आहट
रसोई से कुकर की सीटी
स्नानघर से हरी ॐ तत्सत
पूजाघर से -टनन टनन
आरती के स्वर
आँगन से बच्चों की धकापेल
दादा की टोका टाकी
ऊपरी मन से
दादी की कोसा काटी
और इसी बीच

महाराजिन का पूछना
"बीबी जी क्या बनाऊं ?
जब तक यह सब कुछ नहीं
तब तक घर घर नहीं
मत कहना दोबारा
कि मैं


जब १९७४ में रेल हड़ताल हुई तो मैं रेलवे मैन्स यूनियन गाजियाबाद ब्रांच का पदाधिकारी था। रेलवे कर्मचारियों की इस यूनियन की बागडोर फैडरेशन लेबल पर श्री जार्ज फर्नांडीज के हांथों में थी। गाजियाबाद ही नहीं सारे भारत में यंहा तक की मुंबई में भी जहा कभी भी इससे पहले की हडतालों में रेल बंद हुईं हैं, वंहा के प्लेटफार्म पर भी सूनापन पसरा था। गाड़ियाँ जंहा की तंहा खड़ी थीं।
देश में कोंग्रेस का राज था। हर जगह नारे लग रहे थे- "तानाशाही नहीं चलेगी, गुंडागर्दी नहीं चलेगी, हमारी मांगें पूरी करो" आदि-आदि। रेलवे की यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही, सिवाय इसके की कुछ स्थानों पर सिर-फिरे पुलिस कर्मियों की ज्यादती रही। हर जिले की जेलें हडताली कर्मचारियों से पात दी गयीं, लेकिन यह सुनने को नहीं मिला कि किसी कर्मचारी का सिर पुलिस की लाठी से फूट गया या कर्मचारियों को दोड़ा-दोड़ा कर पिता गया। मैं चूँकि स्वयं भुक्तयोगी रहा हूँ, इसलिए इसका साक्षी भी हूँ। जेल में जेल अधिकारीयों का व्यवहार अच्छा और सोहार्दपूर्ण था।
लेकिन आज का नजारा दूसरा है, ३६ साल में देश ने बहुत तरक्की की है। पुलिस और नेताओं के दिमाग विकसित हुए हैं, उनकी सोच बदली है। अब वे हडताली कर्मचारियों को आदमियों के झुण्ड में न देख कर पशुओं के झुण्ड में देखते है उन्हें लगता है की साड़ी भेड़ें एक हो गयी हैं और ये बिना लाठी के काबू में नहीं आयेंगी। साथ ही लाठी चलाने वाले और चलवाने वाले अफसर राज्य -सर्कार में अपने नंबर बदवाना चाहतें हैं। अब नंबर तो इसी तरह से बढेंगे न कि वे सरकार कि मर्जी के मुताबिक़ कार्य करें। अपना विवेक और अपनी मानवता घर के भीतर खूंटी पर टांग कर कार्य करें।
दिनांक २२/१/२०१० को आप लगभग सभी चैनेलों पर देख रहे होंगें कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश कि राजधानी लखनऊ का डी.एम. एक कर्मचारी को चांटा मार रहा है। और चांटे से पहले चेतावनी देना भी नहीं भूलता कि उसे गुस्सा न दिलाया जाय। अब डी.एम. के एक चांटे ने उस कर्मचारी की सामाजिक इज्जत और उसके स्वाभिमान पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया। यदि डी.एम.के स्थान पर कोई उसका हमजोली होता तो उसका भी हाथ उठ सकता था, लेकिन यंहा उस कर्मचारी का विवेक काम कर रहा था की प्रत्युतर का परिदाम होगा शरीर की एक भी हड्डी का साबुत न बचना।

प्रश्न चांटे या लाठी चार्ज पर ही समाप्त नहीं होता। यदि सरकार तंत्र ने येनकेन-प्रकारेण इस स्थानीय साधारण से विद्रोह को कुचल भी दिया और विजय प्राप्त कर ली तो क्या समस्या का हल हो गया? मैं समझता हूँ इससे कर्मचारियों के मन में जो विद्रोह का विस्फोट होगा वह लाठी और चांटे से अधिक भयंकर होगा। साधारण स्थिति में भी जंहा दफ्तर का बड़ा बाबु अपनी सीट पर अपना चश्मा रख कर गायब हो जाता है, और लोग इन्तजार में ऐसे बैठे रहते है, जैसे वे किसी चिता के पास बैठकर कपाल खोपड़ी की क्रिया पूर्ण होने का इन्तजार कर रहे हों. चुपचाप बिलकुल शांत लोहे या फट्टे की बेंच पर रह -रहकर पास बदलते हुए । तो इस लाठी -चांटे का बदला कर्मचारी अपनी अनुपस्थिति का समय बढाकर, सही को सही कहने की अपनी सुविधा शुल्क बढाकर सरकार से बदला लेने की कोशिश करेगा। और इसके बाद कर्मचारी किसी भी हड़ताल या विद्रोह जताने से पहले दस बार सोचेंगे। शायद धीरे-धीरे वे किसी भी प्रकार के विदोढ़ से ही विमुख हो जायें। और महसूस करने लगे कि प्रजातंत्र और लोकतंत्र केवल दिखावा है। जंहा व्यक्ति अपना विरोध प्रकट नहीं कर सकता वंहा कैसा लोकतंत्र।

हमराही