याद नहीं अब
जीवन में मैं
हारा कब-कब
है बस इतना याद
कि हारा जब-जब
रण के बीच नहीं
हारा, घर के भीतर।

मन के सब अस्त्र-शस्त्र
खडग-तेग-तलवार
बाहर तो खूब चले
पर रहे मोथारे घर -भीतर
रहे देखते अपलक
म्यानो से उचक-उचक
होता अत्याचार
अपनों द्वारा अपनों पर।

कटते हुए पेड़ ने
कहा कुल्हाड़ी से
जब वह
काट रही थी उसको जड़ से
" अरी निगोड़ी सुन
तनिक सांस तो ले
इक बात मेरी सुन ले
क्या तू मुझे काट पाती पगली
यदि होता मेरा हाथ
न तेरे सर पर"।

बी.एल.गौड़

24 नवम्बर की घटना की चर्चा देश के कोने-कोने में है। भला हो मीडिया का विशेष कर इलैक्ट्रानिक मीडिया का कि इस प्रकार की किसी भी घटना या दुर्घटना के घटित होने पर टूट पड़ता है उस खबर पर और मिलता है मुद्दा हर चैनल को अपनी टी.आर.पी. बढाने का । कल मैं इस घटना को घटित होते हुए टी.वी. पर देख रहा था। बार-बार लगातार एक ही दृश्य कि किस प्रकार हरविंदर सिंह ने श्री शरद पवार को थप्पड़ मारा और थप्पड़ भी इतनी ताकत से कि बेचारे शरद पवार टेढ़े होकर दीवार से जा लगे। कुछ मिनट तक लगातार एक ही दृश्य को बार बार देखाते हुए देख कर मैं बोर हो गया और चैनल बदल दिया, लेकिन वहाँ भी यही दृश्य और फिर लगातार हर न्यूज चैनल पर वही दृश्य।

इस घटना से कई बातें उभर कर आती हैं। आयोजनकर्ताओं की सबसे बड़ी गलती है कि महगाई के इस दौर में जब देश का आमजन दो जून की रोटी के लिए जूझ रहा है और खाद्दानों की कीमतें आसमान छू रही हैं, आप ऐसे दौर में मुख्य अतिथि के रूप में बुला रहे हैं ऐसे मंत्री को जिनके कन्धें पर पहले ही देश की खाद व्यवस्था का इतना बोझ है कि उनके दोनों कंधे इससे झुके हुए हैं. वे अपनी समझ से महंगाइ को नीचा दिखाने के लिए उससे हाथापाइ में लगे हैं। अरे किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाते जो कम से कम तुम्हें इस बढ़ती हुइ महंगाइ के कारण बताता और खाद्दानों की कीमतों के ऊँचे जाते हुए ग्राफ के विषय में बतलाता। जब शरद पवार जी को इस सबके विषय में कुछ पता ही नहीं है तो वे बतलाते भी क्या? उन्होंने तो साफ कहा कि आज संसद में विपक्ष जो महंगाइ पर चीख पुकार मचा रहा है, उसका कारण कम से कम उन्हें नहीं मालूम। न मीडिया यह सवाल उनसे पूछता और न वे नकारात्मक उत्तर देते और न ही सिरफिरा हरविंदर सिंह यह कहते हुए कि "सब पता है" उन्हें थप्पड़ मारता। अरे भले मानस तुझे उनकी उमर का तो ख्याल करना चाहिए था। दरअसल थप्पड़ की भी कई डिग्रियां होती हैं जैसे:चाँटा, झापड़ और थप्पड़। इनमें मुझे लगता है कि शायद थप्पड़ ही सबसे धमाकेदार और ताकतवर होता है।

इस काण्ड में दूसरी कमी है दिल्ली पुलिस की जब उसे पता है कि हरविंदर सिंह एक पेशेवर थप्पड़ बाज है तो श्री पवार को जो देश के एक कद्दावर नेता हैं। कुछ अधिक सुरक्षा देनी चाहिए थी और एक आश्चर्य की बात और भी है कि जुम्मा-जुम्मा आठ दिन हुए हैं जब इसी व्यक्ति ने आदरणीय सुखराम जी पर भी हमला किया था। तब सरकार ने क्यों नहीं सोचा कि उसे हरविंदर सिंह जैसे युवकों से जो देश की महंगाइ, भ्रष्टाचार और नेताओं से खार खाये बैठे हैं। थोड़ा होशियार रहे और नेताओं की सुरक्षा और बढ़ाये ताकि वे सरे राह व सरेआम इस तरह से पिटने से बचें।

वैसे इस तरह से रोष प्रकट करने के मामले पहले भी प्रकाश में आये हैं, जब लोगों ने नेताओं पर चप्पल-जूते भी फैंके हैं, थूकना, टमाटार या अण्डे फैंकना भी कइ मामलों में हुआ है। और ये नहीं कि ऐसा केवल हमारे ही देश में होता है, विदेशों में भी कभी-कभार जूता फिन्काई होती है।

पर ऐसी घटनाओं के पीछे राज क्या है, क्यों होता है, ऐसा इस पर शायद ही कोइ सोचता हो, शायद स्वयं अपमानित हुआ नेता भी नहीं। क्योंकि इस तरह का उसका सार्वजनिक अपमान, एक राजनीतिक बहस में तबदील होकर रह जाता है। संसद में बहस होती है। गरमा -गरम बहस के बाद सब उठकर अपने-अपने घर चले जाते हैं, फिर दोनों पक्ष नये-नये मुद्दों की खोज में लग जाते हैं। आगामी सत्र में कैसे एक-दूसरे को मात देनी है, यह प्रश्न महंगाइ के पंश्न के ऊपर हावी हो जाता है और समस्याएं अपनी जगह उफनते हुए दूध् के झाग की तरह नीचे बैठ जाती हैं।

हमारे अपने विचार में तो ऐसे युवकों को सजा देने से पहले सार्वजनिक मंचों पर बुला कर पूरे तौर पर सुनना चाहिए। आखिर इतनी बड़ी भीड़ में उन्होंने ही ऐसा साहसिक या दुस्साहसिक कदम क्यों उठाया और सारी भीड़ क्यों शांत रही। खोज होनी चाहिए कि क्या हरविंदर सिंह जैसे लोग सिरफिरे हैं? किसी मानसिक रोग से ग्रस्त हैं? या किसी भीड़ का प्रतिनिधितिव करते हैं और एक खुली बहस के बाद ही उनकी सजा मुकरर करनी चाहिए।

इस प्रकार खुले आम थप्पड़ मार कर किसी का अपमान करना और वह भी एक नेता का सरासर गलत है, निन्दनीय है। अपमानित करने के या किसी को उसके कर्त्तव्य की याद दिलाने के और भी तरीके हैं।

देश की ज्वलन्त समस्याओं पर विपक्ष कभी एक मत नहीं होता। सभी पार्टियाँ एक ही समस्या को अपने-अपने दृष्टिकोण से उठाती है, समस्या एक ही होती है पर वे कभी एक मत नहीं होते।

इसी के चलते मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं :µ

तुमसे अधिक दोषी हैं तुम्हारे विरोधी
जो तुम्हारे घोर विरोधी होकर भी
परस्पर घोरतम विरोधी हैं
काश! वे सब एक हो पाते
तो हमारा वोट डालना
सार्थक हो जाता
हमारा गुल्लू भी मदरसे जा पाता
और रोटी भी शायद
दोनों जून मिल पाती
गुल्लू की माँ प्यार से बतियाती
. . . . . . . . . . . . . . . .
. . . . . . . . . . . . . . . .
मेरा सारा आक्रोश
विरोधियों के प्रति है
यह तभी धुलेगा
जब उनके हाथों में
एक रंग का झण्डा होगा ...

अपनी एक कविता "वोटर के द्वार नेता" से।

बी.एल.गौड़

एक नई रचना :-काश इतना पता होता

काश मैंने
तुमाहरी हथेली पर बना
एक अनजान द्वीप का नक्शा
पढ़ लिया होता


तो इतिहास कुछ और होता
न तुम पीर सहते
न मैं दर्द ढोता


बात यह नहीं थी
कि मैं
पड़ा लिखा नहीं था
बस कमी यह थी
कि मैं
समझदार नहीं था
प्यार भी व्यापार है
काश इतना पता होता
तो इतिहास कुछ और होता
तुम पीर सहते
मैं दर्द ढोता


इतिहास गवाह है
कि ईश्वर
ऐसे मामलो में
अक्सर चुप रहा है
उसने तो बहुत पहले ही
लैला मजनू
हीर राँझा
शीरे फरियाद
और सोनी महिवाल का
फैसला सुना कर
बंद कर दिया था
अपना बही खाता


असलियत का पता
तो उसे तब लगता
जब उसने भी
किसी से प्यार किया होता
तो इतिहास कुछ और होता
तुम पीर सहते
मैं दर्द ढोता


बी .एल.गौड़

प्रिय मित्रो ! एक लम्बे अरसे के बाद लौटा हूँ , आशा है क्षमा करेंगे " परिस्तिथियाँ लौह क़ी चट्टान होती हैं / यह मुझसे बढ़कर जानता है कौन / यह कविता फिर कभी , अभी " मैं नदी हूँ "
मैं नदी हूँ
मैं नदी हूँ
पीर हूँ हिमखंड क़ी
जब सह न पाया ताप वह
दिनमान के उत्कर्ष का
गलने लगा
बहने लगा , वह
धार बनकर नीर क़ी
बहती हुई उस पीर का
परियाय्वाची नाम मेरा धर दिया
कह दिया
कि मैं नदी हूँ
संजीवनी वनखंड की

छोड़ पीहर जब चली थी
चाल मेरी थी प्रचंड
पारदर्शी रूप में ज्यों
बह रहा हिमखंड
पर धरा के वासिओं ने क्या किया
कि गंदगी के ढेर से
हर अंग मेरा ढक दिया
और चांदनी सा रूप मेरा
बादलों सा धूसर कर दिया
अब क्या करूं
बेहद दुखी हूँ
मार कर मन बह रही हूँ
चल रही हूँ चाल मैं वितंड की

क्या कहूँगी मैं समंदर से
जो बड़ा बेताब है मेरे मिलन को
कैसे कहूँगी
प्रिय ! तुम मुझे स्वीकार कर लो
मैं कुरूपा हूँ नहीं कर दी गई हूँ
नहीं यह दोष मेरा
दोनों तटों को आज मेरे
आदमी का रूप धरकर
वनचरों ने आन घेरा
लाज उनको है नहीं छूकर गई
पूरी तरह विद्द्रूप कर के वे मुझे
कह रहे हैं गर्व से
कि मैं नदी हूँ
भोगती हूँ नित सजा म्रत्युदंड की
बी एल गौड़

१ में नदी हूँ
में नदी हूँ
पीर हूँ हिमखंड की

जब सह न पाया ताप वह
दिनमान के उत्कर्ष का
गलने लगा
बहने लगा
धार बनकर नीर की
बहती हुई उस पीर का
परियायवाची नाम मेरा धर दिया
कह दिया
कि मैं नदी हूँ
संजीवनी बनखंड की

छोड़ पीहर जब चली थी
चाल थी प्रचंड मेरी
पारदर्शी रूप था
धूप जैसा रंग था
पर धरा के वासिओं ने आन घेरी
गंदगी के ढेर से
हर अंग मेरा ढक दिया
चांदनी सा रूप मेरा
बादलों सा धूसर कर दिया
अब क्या करूं
बेहद दुखी हूँ
मारकर मन बह रही हूँ

क्या कहूँगी मैं समंदर से
जो बड़ा बेताब है मेरे मिलन को
कैसे कहूँगी
प्रिय ! तुम मुझे स्वीकार करलो
मैं कुरूपा हूँ नहीं , कर दी गयी हूँ
नहीं यह दोष मेरा
दोनों तटों को आज मेरे
आदमी का रूप धरकर
वनचरों ने आन घेरा
लाज उनको है नहीं छूकर गई
पूरी तरह विद्रूप करके ,वे मुझे
कह रहे हैं गर्व से
क़ि मैं नदी हूँ
भोगती हूँ नित सजा म्रतुदंड की

बी एल गौड़
बी १५९ , योजना विहार , दिल्ली ९२ .

ऐसी मान्यता है कि नर बया घोसला बुनना शुरू करता है और आधा निर्माण हो जाने पर घोंसले के बाहर न्रत्त्य
करता है जब तक कि कोई मादा बया उसके न्रत्त्य पर रीझ कर उसके पास न आ जाए , फिर दोनों मिलकर
घर ( नीड़ ) पूरा करते हैं , उसके बाद बया उसमें अपने बच्चों को जनम देती है , इसे लेकर एक रचना :-
नीड़ का निर्माण आधा

कर नीड़ का निर्माण आधा
नर बया ने मौन साधा
न्रत्त्य कर कर थक गया तन
पर न आई एक राधा

उड़ गया फिर दुसरे वन
इक नया संकल्प लेकर
अब बुनूँगा नीड़ फिर से
स्वयं का सर्वस्व देकर
एक शंका घेरती मन
हो चुका इक बार ऐसा
बांसुरी कि तान पर भी
राधिका ने मौन साधा

पर न पीछे अब हटूंगा
नीड़ को आकार दूंगा
और अंतिम सांस तक मैं
आस उसकी में रहूँगा
है प्रणय में शक्ति कितनी
यह समय बतलायेगा
जब न्रत्त्य में लूंगा समाधि
ढूँढती आएगी राधा

बी एल गौड़

मेरी रचनाओं पर टिप्पणी कर मुझे प्रोत्साहित करने वालो मेरे मित्रो !अरुण राय ,रिचा पी माधवानी ,सुनील कुमार
वंदना जी ,संगीता स्वरुप वीणा व अन्य सभी को मेरी ओरे se यथा योग्य नमन व शुभ आशीर्वाद तथा धनंयवाद

शुभेछु
बी एल गौड़

जय लोक मंगल के सभी मित्रों को मेरा नमन
कहते हैं न कि एक तो गिलोय कडवी दूजे नीम चढ़ी सो अपना भी वही हाल है एक तो व्यस्तता अधिक दुसरे इस
कंप्यूटर कि विधा में हाथ कमजोर ,इसी लिए इतने दिनों के बाद यह मुलाक़ात हो रही है तो चलिए आपकी नाराजगी को दूर करते हैं एक नई रचना से
पडौसी
मैं पडौसी को नहीं
पडौसी के घर को जानता हूँ
भला हो
उसके द्वार पर लगे नामपट्ट का
जिससे चलता है पता
कि वह किस जात का है

जब मैं इस शहर में आया
तो मैंने भी
अपने दरवाजे पर
अपना नहीं ,अपनी जात का बोर्ड लगवाया
बोर्ड इस लिए कि वह
नामपट्ट से बड़ा होता है
और पडौसी को
यह अहसास दिलाना जरूरी था
कि मैं तुझ से कम नहीं
तू मुझे नहीं जानता
तो मैं भी तुझे नहीं

यहाँ आकर पता चला
कि पडौसी का पडौसी को न जानना
यहाँ कि संस्कृति है
इससे एक बड़ा लाभ यह होता है
कि वक्त पड़ने पर पडौसी
आराम से कन्नी काट जाता है
और घर के सबसे पिछले कमरे में
बज रहे रेडियो को धीमा कर
या फिर कर
टी वी को साइलेंट मोड़े पर
पडौसी की अर्थी उठने का इन्तजार करता है

दुनियादारी भी जरूरी है
इस लिए वह
ऑफिस जाते हुए
कुछ मिनट के लिए
मरघट जाना नहीं भूलता
अफ़सोस जता कर
यह बताना नहीं भूलता
की वह आदमी की जात का है

सुना है की यह शहर की कल्चर है
पर न जाने क्यों , मैं
सोचता रहता हूँ
की यहाँ का बाशिंदा
आदमी है या वनचर है
वैसे इस तरह का चलन
नेताओं के लिए बड़ा हितकारी है
क्योंकि उनका
आदमी से अधिक
उसकी जात का जानना बहुत जरूरी है
यही तो वह तुरप का इक्का है
जो हर चुनाव पर भारी है

ढेर लगे ताश के पत्तों पर
जब यह इक्का पड़ता है
तो सारे पत्ते एक तरफ चले जाते हैं
नेता को गद्दी पर बिठाते हैं
फिर ऐसे नेता देश चलाते हैं
न जाने वह दिन कब आयेगा
जब हर घर के दरवाजे पर
जात का नहीं
आदमी का नाम लिखा जाएगा
वह महज एक वोट नहीं
आदमी कह लाएगा
और तब मैं भी
गर्व से कह सकूंगा
कि मैं पडौस के घर को नहीं
पडौसी को जानता हूँ

बी एल गौड़



यह मेरी हिंदी में लिखी इंजीनिरिंग कि पुस्तक "नींव से नाली तक " तक का लोकार्पण का चित्र है उत्तराखंड के मु . मंत्री
श्री रमेश पोखरियाल निशंक एवम गवर्नर श्रीमती मारग्रेट अलवा के द्वारा यह लोकार्पण २३ मई २०११ को हल्द्वानी में संपन्न
हुआ मित्रों को सूचनार्थ

बी एल गौड़ .


देश को आजाद हुए 63 बरस बीत गये। जब देश आजाद हुआ तो लोग खुशी से झूम गये कि अब वतन आजाद है, अब इसमें निकलता हुआ सूरज हमारा अपना होगा, इसकी आबोहवा में बसे हुए डर का नामोनिशां नहीं होगा। राजतंत्र और गोरे बादशाहों की जंजीरों से हम छूटे और राज शुरू हुआ, हमारे अपनों का अपनों पर, अपनों के लिए। अर्थार्त राजतंत्र प्रजातंत्र में बदल गया। लेकिन चन्द बरसों में ही लोगों की समझ में आने लगा कि वर्तमान तंत्र में उनके साथ छल हो रहा है। लोकतंत्र और प्रजातंत्र जैसे शब्दों का अर्थ ही बे-मानी हो गया है। यदि तीस लोगों को अपना प्रधान चुनना है तो जिधर 16 के वोट होंगे प्रधान उन्हीं का होगा, चाहे वे 16 के 16 बेईमानी और भ्रष्ट ही क्यों न हों। और इसी संख्या बल के खेल का नाम रख दिया गया डैमोक्रैसी। बड़े-बड़े प्रायोजित विद्वान इस देश की जनता का प्रजातंत्र । डैमोक्रैसी का शाब्दिक अर्थ समझाने लगे गवर्मेंट ऑफ़ दी पीपल, फॉर दी पीपल और बाई दी पीपल। सब कुछ ठीक था, लेकिन इस सब में यह पीपल अर्थार्त पब्लिक कहीं नहीं थी। इसे तो मान लिया गया था - भेड़ों का झुण्ड। जब भी चुनाव आते- बगुले बंगलों से सड़क और गलियां में दिखाई देने लगते और भेड़ों की भीड़ का एक-एक आदमी, आदमी से बदलकर वोट बन जाता। जब भी कभी नेताओं के आवास पर चुनाव सम्बन्धी बैठक होती तो सभी प्रश्नों और उत्तरों में एक ही बात की चर्चा होती कि अमुक स्थान में अपने कितने वोट हैं और यदि नहीं हैं तो शेष आदमियों को कैसे वोट में तब्दील किया जा सकता है।
देश की संसद के लिए और प्रदेशों की विधान सभाओं के लिए जब चुनाव के मेले समाप्त होते तो वहां बनती सरकारें। वे सरकारें जो देश चलाती हैं अर्थार्त जनता को हाँकती हैं। जो नेता कल तक वोट के लिये दरवाजे पर खड़ा था आज उसके द्वार पर तैनात वर्दीधारी गार्ड और लान में घूमते कुत्ते उसी वोटर को अपने चुने हुए प्रतिनिधि की एक झलक से भी रोकने से गुरेज नहीं करते। इस तरह के हालात बीतते-बीतते आ गया नयावर्ष -2011
पिछले बरस अर्थार्त 2010 में हमारे देश में एक बड़ा कार्य हुआ अर्थार्त राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में हुआ। जिन भ्रष्ट लोगों के हाथों में आयोजन की कमान थी, उनका कलमाड़ी नाम का एक मुखिया था। इस मुखिया के तहत एक समिति बनी, जिसका मुख्य पेशा था - लूट और साथ ही साथ राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन। खेलों की तैयारियां चलती रहीं और लूटमारों की तिजोरियां भरती रहीं (जनता की खाली होती रहीं)।
फिर खेल खत्म और पैसा हजम वाला दिन आया। खेल खत्म हुए और भ्रष्टाचार को देख-देखकर दुखी हुई जनता को मुर्ख बनाने के लिए और भ्रष्टाचार का पता लगाने के लिए जाँच समितियां बनने लगीं। मीडिया और जनता डर-डर कर शोर मचाने लगे कि खेलों में भ्रष्टाचार हुआ है। फिर जाँच में थोड़ी आँच लगाईं जाने लगी, कुछ गिरफ्तारी आदि होने लगीं। इसी दौरान और भी कई बड़े घोटाले हुए। 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला वह भी एक लाख छियत्तर हजार करोड़ का था। उसी तरह कोई तेलगी घोटाला तो किसी अली का घोटाला इत्यादि। हताश जनता यह मान बैठी कि अब कुछ होने वाला नहीं है और हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे ही भ्रष्ट तंत्र में जीना पड़ेगा। 63 सालों का घोटालों का इतिहास साक्षी है कि घोटालेबाज चाहे केन्द्र के रहे हों अर्थार्त प्रदेश के, उनका आज तक कुछ भी नहीं हुआ और न भविष्य में कुछ होने वाला है। भले ही जनता की नजर में वे दागदार रहे हों लेकिन यह निश्चित है कि वर्तमान तंत्र के अंतर्गत वे बेदाग छूटेंगे। क्योंकि पिछले 63 बरसों की एक भी नजीर ऐसी नहीं है जिसे सामने रख कर यह कहा जा सके कि हाँ फलाँ घोटाले में फलाँ घोटालेबाज को इतनी सजा हुई थी।
ऐसे ही घुटन भरे नीम अँधेरे में से एक सूरज निकला जिसका नाम है -अन्ना हजारे , यह सूरज निकला महाराष्ट्र की धरती पर। हालांकि सूचना का अधिकार (आर.टी.आइ) का कानून बनते समय- अन्ना हजारे का नाम सुर्ख़ियों में रहा, लेकिन उसे तब तक बालरवि के रूप में ही जाना जाता रहा। लेकिन 5 अप्रैल का यह अन्ना हजारे नाम का सूरज अचानक दिल्ली की दहलीज पर आ चमका। और उसने आते ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बिगुल बजा दिया। उसके शंख की ध्वनि पूरे देश में पहुंच गई और सारा देश एक गहरी निद्रा से जाग गया।
अन्ना हजारे भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर अनशन पर बैठ गये। देश की जनता को लगा कि गाँधी फिर लौट आये हैं, इस बार विदेशियों से नहीं देशियों से आजादी दिलाने के लिए। उनका अनशन तुड़वाने के लिए सरकार ने बड़े प्रयत्न किये अन्ना को बतलाया गया कि जो लड़ाई आप लड़ने आये हैं वही तो हम भी लड़ रहे हैं और बिल्कुल उसी तर्ज पर लड़ रहे हैं जिस पर पूरे 63 साल से हम से पहले वाले नेता लड़ते रहे हैं। अन्ना को ये सब दलीलें बेहूदी लगीं, वे एक ही बात को लेकर अड़े रहे कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो भी समिति बनेगी उसके आधे सदस्य जनता के होंगे और आधे सरकार के और इसका अध्यक्ष होगा कोई न्याय में आस्था रखने वाला सेवानिवृत्त न्यायाधीश । न इससे ज्यादा न इससे कम और अन्त में इस नये गाँधी के सामने वर्तमान सरकार को घुटने टेकने पड़े। केवल 83 घंटे में सरकार पूरी तरह हिल गई , सारे देश में एक सैलाब आ गया, हर जुबान पर एक ही नाम था और वह था- अन्ना हजारे अमर रहें, अन्ना हम तुम्हारे साथ हैं, देश का हर नागरिक यही आवाज देने लगा। और अन्ना हजारे की विजय के साथ ही यह 83 घन्टे का युद्ध दिनांक ८.४.२०११ को रात लगभग 11 बजे समाप्त हो गया। अब एक कानून बनेगा और उम्मीद है कि घोटालों के युग की समाप्ति होगी।
अन्ना हजारे जैसे युग पुरुष बड़ी मुद्दत के बाद किसी देश की धरती पर जन्म लेते हैं। शतायु हों श्री अन्ना हजारे यही प्रार्थना है ईश्वर से।
- बी.एल. गौड़

बचा ही नहीं बूँद भर अम्रत पी गए देव बिना विचारे बोल का परिणाम महाभारत हुआ निस्सार शपथ लेते लेते गीता का सार लम्बी उमर नापते अनुभव न कि बरस सीता का दुःख उर्मिला के सम्मुख कुछ भी नहीं एक ही प्रश्न कब हों पीले हाथ चिंता में तात चुनाव देख बगुलों के वेश में निकले कौवे केन्द्रविंदु है सीता अपहरण रामायण का बी एल गौड़

अब खबर आई है कि भारत सरकार की नामी-गिरामी एजेंसी सी.बी.आई . फिर से सक्रिय हो गई है। उसने कहा है कि अब वह 26 साल बाद इतिहास में दर्ज सबसे बड़ी मानव त्रासदी - " भोपाल गैस काण्ड " के सबसे बड़े अपराधी वारेन एंडरसन को वापिस भारत लाकर उस पर अपराधिक मुकदमा चलाना चाहती है। प्रश्न यह उठता है कि उसे अब तक किसने रोका हुआ था। क्या यह संस्था जो सीधे- सीधे भारत सरकार के आधीन है और कहते हैं कि यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है तो इतनी अच्छी बात उसे पहले क्यों नहीं सूझी। अब इस एजेंसी ने बड़ी मेहनतकर 33 पन्नों में यह बात लिखकर अदालत को बताई है कि एंडरसन को भारत लाना क्यों जरूरी है और यही एकमात्र रास्ता है जिससे 26 साल पहले जो हजारों आदमी एंडरसन की फैक्ट्री यूनियन कार्बाइड के गैस रिसाव से मर गये थे, उनकी आत्माओं को न्याय दिलाया जा सके। वैसे भी हमारे देश की परिपाटी बन चुकी है कि हम दिवंगत आत्माओं को ही न्याय दिलवा पाते हैं। इसका एक लाभ दिवंगतों के बचे-कुचे संबंधियोँ को यह मिलता है कि उनके मन में पल रहा दु:ख कुछ कम हो जाता है। अब श्रीमान एंडरसन 90 वर्ष के हो चुके हैं, जिन्हें भारत की अदालत में पेश करना है। अभी तो सी.बी.आई . ने इस काम को अंजाम देने के लिए तीस हजारी कोर्ट में 33 पन्नों का प्रार्थना -पत्र दिया है कि उसे ऐसा करने की इजाजत दी जाए। भारत में न्याय-प्रक्रयिा की देरी इस बात का सबूत है कि यहाँ आनन-फानन में कोई फैसला नहीं लिया जाता है, यहाँ दूध् का दूध् और पानी का पानी करने के लिये ही समय लगता है। उदाहरण के लिए जब सी.बी.आई . ने आदरणीय सुखराम शर्मा पूर्व संचार मंत्री भारत सरकार के आवास से कई करोड़ रुपये बरामद किये जो उनकी आय से अधिक थे, तो उन पर मुकदमा चला। 13 साल बाद उन्हें हाईकोर्ट ने बुलावा भेजा और जब सजा सुनाने की बात आई तो 80 वर्षीय सुखराम जी ने फरमाया कि अभी तो उनके लिए उच्चतम न्यायालय के दरवाजे खुले हैं। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट जायेंगे और इस तरह वे अपने जीवन के अंतिम वर्ष सुख-सुविधओं के साथ गुजारेंगे। ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें मुकदमों के चलते-चलते बीसियों साल गुजर गये हैं और ये मुकदमे हैं कि कभी थकते नहीं। बोफोर्स तोप वाला मुकदमा तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने तंग आकर उसकी क्लोजर रिपोर्ट का आदेश पास कर दिया। सन् 1984 का सिख कत्लेआम का मुकदमा अभी भी सिसक-सिसक कर चल रहा है। एक आतंकी भाई जिन्हें अफजल गुरु कहते है, उनका तो मुकदमा ही एक नजीर बन गया है जिसकी फ़ाइल में ऐसे पहिये लगे हैं कि वह कही भी किसी भी कारालय में टिक ही नहीं पाती और बिना किसी अल्पविराम के दौड़ती रहती है इधर से उधर और उधर से इधर । भोपाल काण्ड के सबसे बड़े अपराधी 90 साल के एंडरसन भारत लाये जायेंगे और यह तो निश्चित है कि भारत आते-आते वे 91-92 साल के तो हो ही जायेंगे। फिर लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन पर मुकदमा चलेगा। और मेरे विचार में चूंकि वे अमेरीकी नागरिक हैं तो जमानत मिलने में विलम्ब नहीं होगा। और एक आशंका यह भी है कि अमेरिका सीधे- सीधे " नो " कह दे तो फिर इस पर बड़ी-बड़ी टिप्पणियां आयेंगी और बरसों तक इस पर लफ्फाजी होगी। क्या यह मुहिम उन हजारों मृत व्यक्तियों के परिजनों को रेगिस्तान में जलाशय दिखाने जैसी नहीं है? या फिर यह मुहिम इसलिए है कि इतने बड़े नर-संहार में भारत सरकार अब तक मौन साधे रही, जिस कारण जनता में सरकार के प्रति एक उदासीनता की भावना घर कर गई । शायद सरकार के इस कदम से जमी बर्फ कुछ पिघले।

बी.एल. गौड़

चालीस हजार करोड़ की कर चोरी के मामले में नाँक तक ध्ँसे हसनअली को जमानत मिल गई और उसकी बल्ले-बल्ले हो गई। केस कैसा भी हो, मुजरिम जमानत न मिलने तक ही ज्यादा परेशान रहता है। जमानत मिल जाने के बाद तो उसे अपने बचाव के लिये सौ रास्ते दिखाई देने लगते हैं और तरह-तरह के हथकंडे याद आने लगते हैं। फिर न्याय की पटरियों पर उसका मुकदमा मालगाड़ी की रफ़्तार से रेंगने लगता है। इस तरह से फंसा अपराधी अपने केस की लम्बी-लम्बी तारीखें डलवाता है, जी हाँ अधिकांश मुकदमों में यही होता है, तारीखें न्यायालय की ओर से नहीं दी जातीं बल्कि डलवाई जाती हैं। जिसकी जैसी जुगाड़ वैसी उसकी तारीखों की उमर। और इसे कहते हैं केस को डाइल्यूट करवाना।
लेकिन ये बल्ले-बल्ले हसनअली वाली बिरादरी के ही आदमियों की होती है। बिरादरी से मेरा मतलब है स्कैमर्स की बिरादरी, चाहे वे कलमाड़ीस हों, चाहे हसनअलीस। हसनअली के केस में तो पढ़ने को यह भी मिला कि अभियोजन पक्ष का वकील कमजोर पड़ गया, इसलिए हसनअली को तुरन्त जमानत मिल गई वर्ना कोई सवाल ही पैदा नहीं होता कि व्हील चेयर पर बैठकर आये हसनअली साहब को न्यायालय में घुसते ही जमानत मिल जाती। कुछ लोगों का तो कहना यह भी है कि आयोजन पक्ष के वकील को हसनअली के आदमियों ने पानी में घोलकर कमजोरी की दवा पिला दी, जिससे वकील साहब कमजोर पड़ गये और कोई दलील ही नहीं दे पाये कि जमानत से पूर्व हसनअली को रिमाण्ड पर लेकर उस अकूत धन के विषय में पता लगाया जा सके। जिसके विषय में उच्चतम न्यायालय केन्द्र सरकार से भी नाराजगी जता चुका है और प्रश्न भी कर चुका है कि हसनअली को अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया। वैसे हसनअली वाला यह संगीन मामला ऐसा नहीं कि देश के पिछले दशक में अकेला ही हो। इससे पूर्व में कितने ही संतरी, मंत्री, राजा, राजू, बाबू अर्थात् आई.ए.एस., आई.एफ.एस. और इन्हीं सेवाओं के समकक्ष कस्टम, इंकम टैक्स, सेल्स टैक्स आदि-आदि सेवाओं से जुडे़ हुए, लोग सी.बी.आई. के फंदे में आये पर कुछ दिनों के बाद हाथ में से मछली की तरह फिसल गये। मुकदमें आज भी बदस्तूर चल रहे हैं और वे लोग भी चल रहे हैं और उनसे सम्बंधित उनके अपनों की बल्ले-बल्ले बदस्तूर जारी है।
असल में भ्रष्टाचार अब केवल भ्रष्टाचार मात्र नहीं रह गया, बल्कि एक जीवाणु का रूप लेकर कुछ व्यक्तियों के खून में घुल चुका है और साथ ही प्राण-घातक बीमारी का रूप भी धारण कर चुका है। अब इससे कौन-कौन बचा है, छाँटना मुश्किल ही नहीं असम्भव सा हो गया है। इसका कारण बड़ा स्पष्ट है कि हम भ्रष्टाचार में डूबे या आरोपित व्यक्तियों के खिलाफ आज तक एक भी नशीर पेश नहीं कर पाये, जिसके मद्देनशर देश की जनता को यह बता सकें कि देखो भई वह मंत्री या बाबू जिसके यहां इतने टन सोना और इतने करोड़ बेहिसाब नकदी मिली थी, हमने उसकी यह गति की है। आप भी देख लें और आप या आपके भाईबंद शासन में किसी भी संवेदनशील पद पर विराजमान है तो जरा ईमानदारी से काम करें वर्ना आपका भी यही हस्र होगा जो इन श्रीमान का हुआ है।
1947 में देश आजाद हुआ। इस देश में 63 साल से स्वतंत्रता दिवस और बाद में गणतंत्र बनने के बाद गणतंत्र दिवस लगातार मनाया जा रहा है। और एक लम्बे समय से देश को खोखला करने में भ्रष्टाचारी लोग भी जी-जान से लगे हुए हैं।
ऐसा नहीं कि वे पकड़े नहीं जाते, पकड़े भी जाते हैं और 20 से 30 साल तक मुकदमा भी झेलते हैं और फिर बाइज्जत बरी होकर आम नागरिक की तरह अपना शेष जीवन मौज के साथ बिताते हैं।
इस सबका इतना घातक परिणाम जनमानस पर हुआ है कि उसके दिमाग से ‘डर’ नाम का शब्द गायब हो गया है, उसकी धारणा यहाँ तक बन गई है कि कानून उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। कभी-कभी न्याय व्यवस्था भी विवश हो जाती है, जैसे बोफोर्स तोप घोटाले में उसे विवश होकर यह कहना पड़ा कि इस केस को हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिया जाये।
64-65 करोड़ के दलाली के इस केस पर न्यायालय के 22 साल और देश के लगभग 250 करोड़ रुपये खर्च हो गये, लेकिन पहाड़ खोदने के बाद मरी हुई चुहिया भी नहीं मिली। और सरकार व न्यायालय ने इस केस को बन्द करके एक अच्छा काम किया। इस शब्द ‘बोफोर्स’ को पढ़ते-पढ़ते आम जन बहुत ऊब गया था, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार सन् 1984 के सिख विरोधी दंगों की यदा-कदा छपी हुई बात को पढ़कर पाठक अख़बार के उस पृष्ठ को पलटते हुए अगले पृष्ठ पर पहुँच जाता है।
लेकिन यह सब अब आगे चलने वाला नहीं है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने और वर्तमान सरकार ने सरेआम यह ऐलान कर दिया है कि अपराधी चाहे जितने भी रुतबे वाला हो, किसी भी पद पर हो अब बख्शा नहीं जायेगा और इसी के मद्देनशर दिन-प्रतिदिन कलमाड़ी से जुड़े 2जी वाले मामले में जड़ों को बहुत गहराई तक खोदा जा रहा है जहाँ से दबे हुए सत्य को बाहर लाया जायेगा।
निःसंदेह प्रधानमंत्री की घोषणा और ईमानदारी से उठाया हुआ यह कदम सराहनीय है और यह फैसला उम्मीद जगाता है कि अब भविष्य में हसन अली जैसों की नहीं बल्कि आम आदमी की बल्ले-बल्ले होगी।
बी.एल. गौड़

इससे पहले कि मैं यह कविता लिखूं , मैं वीना,वन्दना ,अन्ना ,डोर्थी ,सुशिल बाल्किवाल,मृदुला प्रधान और पटाली के प्रित अपना आभार प्रगट करना चाहूंगा जिनोंहने मेरी कविता "हंसुली जैसा चाँद "पर अपनी टिप्णियाँ भेज कर
मेरा उत्साहवर्धन किया करीब १२ दिन विदेश में रहकर लौटा हूँ इस लिए आप सभी को धनंयवाद देने में भी देरी हुई है
अब आज लिखी कविता देखें :-
सुन मेरे पारद सरीखे मन

न जाने कब मुझे
पगडंडियों ने
ला धकेला राजपथ पर
और तब से अनवरत
मैं चल रहा हूँ अनमना सा
तप्त डाबर कि सड़क पर

अंतर नहीं कोई यहाँ
अंधेरों में उजालों में
यहाँ हर शाम रूमानी
टकरते जाम प्यालों में
कान फोडू बेसुरा संगीत
कोई सुर न कोई ताल
न कोई है अदब कायदा
बस, डगमगाती बेतुकी सी चाल
इससे पहले
कि ये मंज़र मुझे डस ले
ए मेरे छलनी हुए मन लौट चल
तू फिर उनींह pagdandion पर

यहाँ हर आदमी
जो दिखता है नहीं होता
जो होता है नहीं दिखता
और प्यार कि पाकर छुवन वह
मुंह छिपाकर खूब रोता
जब कभी वह सभ्य दिखता है
तो लगता देवता का रूप
कभी वह छाँव ममता कि
कभी वह क्रूरता कि धूप
न जाने क्यों हमें लगता
कि हम यहाँ आकर बने है
टांड पर ताले लगे संदूक
इससे पहले
कि ये ताले खुलें
और अंतस में बसे
सीधे सरल से भाव हों कलुषित
सुन मेरे पारद सरीखे मन
लोट चल तू फिर उसी परिवेश में
तीर नदिया के जहां पर
नृत्य करते मोर
स्वर्ण की चादर लपेटे
धीरे ,बहुत धीरे सरकती भोर
और सारस ताल में डुबकी लगाकर
आ किनारे फडफडाते पर
बी एल गौड़

हंसुली जैसा चाँद निकलकर जब छत पर आया
सुधियों का चंदनवन मेरे अंतस उग आया
पारद बनकर ये पाजी मन कण कण बिखर गया
धुंधला सा इक चित्र किसी प्रतिमा का निखर गया
इक पल ऐसा लगा कि जैसे नूपुर कहीं बजे
दूजे पल यों लगा कि मेरा मन था भरमाया

बीती सारी उमर ढूँढ़ते ताल कहीं जल के
काश कोई लौटा कर लाता बीते पल कल के
नरम हथेली धर मांथे पर कोई जगा गया
पता चला अवचेतन द्वारा चेतन छला गया
आज सवेरे आकर जब कुछ बोल गया कागा
हर आहट पर लगा कि जैसे मनभावन आया

थके थके से अश्व सूर्य के धीरे आज चले
स्वर्णमयी संध्या आ पहुंची घर घर दीप जले
रहा सोचता बैठा बैठा उठ कर कहीं चलूँ
या रत रहूँ प्रतीक्षा में बन दीपक स्वयं जलूं
घिर घिर आई रात अँधेरी चाँद नहीं आया
है यह मेरी नियति कि मैंने सदां शून्य पाया
बी एल गौड़



ये सत्ता के गलियारे
खेल संभालकर प्यारे
पहले दिया सहारा
अब पहुँचाया कारा।


मुगल इतिहास में औरंगजेब ने एक नजीर पेश की थी। जिस जिस से उसे डर था, चुन-चुन कर उसे जेल में बन्द करवाया था। जिनमें उसका सगा बाप शाहजहॉं भी शामिल था। तो श्री मान राजा साहब आप किस खेत की मूली है। देखते नहीं तुम्हारे इस 2-जी के खेल ने सरकार को किस आफत में डाल दिया है और विपक्ष किस तरह मामूली से एक लाख छियत्तर हजार के घोटाले को पकड़ कर बैठ गया है। और किस तरह जे.वी.सी. की मॉंग पर अड़ा है। अब तुम्ही बताओ प्रिय राजा! यह सरकार तुम्हें दो साल तक सहारा देती रही और सहारा तो एक तरफ , तुम्हे तो चहेता राजा ही बनाकर रखा। अरे भले ही लोकतन्त्र क्यों न हो लेकिन इस लोकतन्त्र में कोई मन्त्री किसी राजा से कम थोड़े ही होता है। अब हमें बजट भी तो पास करवाना है सो विवश्तावश हमें यह कदम उठाना पड़ा है। लेकिन तुम किंचित मात्र भी चिंतित और विचिलित मत होना। इतिहास गवाह है कि इससे पूर्व भी कितने ही मन्त्री जेल गये हैं। उदाहरण के लिये सर्व श्री सुखराम जी भी तुम्हारी ही तरह दूरसंचार मन्त्री थे, गिरफतार हुऐ, जमानत से बाहर हुऐ, तेरह साल बाद जब उच्च न्यायलाय ने उन्हें दोषी पाया तो अन्होनें कहा था कि अभी उच्चतम् न्यायालय का द्वार बाकी है। शिब्बू सौरेन कत्ल के मामले में जेल गये, छूट कर आये तो , बड़े कोयला मन्त्री बने। लालू प्रसाद यादव 73 दिन तक जेल मे ंरहने के बाद रेलमन्त्री बने। इसी तरह सुश्री जयललिता भी जेल गईं और जब वे सत्ता र्में आइं तो उन्हें जेल भेजने वाले श्रीमान करूणानिधि जेल गये। तो भई! राजा जी! यह तुम्हारा जेल जाना कोई डिसक्वालीफिकेशन नही है। तुम निश्चिन्त रहो, बोलो कुछ नही, चुपचाप जेल जाओ और जमानत करवा कर बाहर आओ। देश में अच्छे धुरन्धर वकीलों की कमी नही है। जो स्याह को सफेद और सफेद को स्याह साबित कर सकते हैं तो फिर चिन्ता किस बात की।
यह थोड़ा सा गर्दिश का समय है, और मानस में तो तुलसी दास जी ने साफ साफ लिखा है ‘‘दिवस जात नहीं लागहिं बारा। रहिउ एक दिन अवधि अधारा’’ पता ही नही चला था कि किस तरह श्री राम के 13 बरस और 29 दिन योंहि बीत गये थे।


यह समय बड़ा तेजी से भागता है। थोड़े ही दिनों के बाद तुम बाहर आ जाओगे। इस घोटाले के केस में होना हवाना कुछ नही है और इस बात की पूरी संभावना है कि तुम दोबारा मन्त्री पद पा लोगे। जब उपरोक्त गिनवायें गये मंत्रियों का बाल भी बाका नही हुआ तो तुम्हारा ही क्यों होगा। हमारे इस लोकतन्त्र की परमपरा है कि यदि किसी घोटाले में पकडे़ भी जाओ तो बिलकुल भी मत घबराओ। यहॉं दागी मंत्रियों को केवल कष्ट होता है, कारावास नहीं।
अब सुन रहे हैं कि श्री कलमाड़ी जी की बारी है। अभी चन्द रोज पहले ही किसी टिप्पणी पर उन्होनें घूर कर ऑंखें दिखाई थीं अब पूरी सम्भावनायें है कि उनकी वही आंखे जेल का बड़ा फाटक भी निहारेंगी।


लिखते लिखते हमें थोड़ा ज्योतिष का ज्ञान भी हो गया है, हमें तो दोनो घोटालों में जो सम्भावना नजर आ रही है, वह है कि इन दोनो महानुभावों के आजू-बाजू वालों पर न्यायालय की गाज गिरेगी। ये निर्दोष मुस्कराते हुअे जेल के सींकचों से बाहर आयेंगे और फिर से राजनीतिक शतरंज के खेल में मस्त हो जायेंगें और सभी विरोधियों को मात देकर पुनः विजय रथ पर सवार दिखाई देंगे।



ए हिमखंड गालो मत ऐसे

ए हिम खंड गालो मत ऐसे
जैसे मेरी उमर गली
मैं रोया तो क्या पाया
तुम रोये तो डगर मिली

मुझ में तुम में अंतर केवल
मैं भी कोमल तुम भी कोमल
जन्मे तुम सीधे अम्बर से
मैं भी किसी प्रणय का प्रतिफल
रूप हमारा भले अलग है
पर दोनों का उदगम जल है
तुम को भ्रम तुम अमर रहोगे
पर जीवन तो पल दो पल है
पा लोगे तुम बहकर मंजिल
मैं भटकूंगा गली गली

पाकर ताप लगे तुम बहने
पाकर दर्द लगा मैं लिखने
तुम ने बहकर पाई नदिया
मैंने लिख कर पाए सपने
तुम सोते चादर फैलाकर
क्या जानो तुम दुःख धरती के
तुम ने सोकर उमर बिताई
मैंने दुःख बांटे लिख करके
पीछे मुड जब देखा मैंने
पाई अपनी उमर ढली

बी एल गौड़

ओस के कण देख कर

पंखुरी की देह पर
ओस के कण देख कर
एक पल को यों लगा
ज्यों किसी ने बीनकर आंसू किसी के
ला बिखेरे फूल पर

कुछ देर में आकर यहाँ
दिनमान छू लेगा इनेंह
ये भाप बन उड़ जायेंगे
रूप धरकर बादलों का
फिर गगन में छाएंगे
आ झुकेंगे ये धरा के भाल पर
या सिमटकर सात रंग में
जा तनेंगे पाहनों के ढाल पर
या बनेंगे बूँद फिर से
जा गिरेंगे फूल पर या शूल पर

मुझ से कहा था फूल ने
तू ध्यान दे इस बातपर
हैं जिंदगी के चार दिन
अंधियार की मत बात कर
तू झूमकर इसको बिता
तू जिंदगी के गीत गा
तू सौ बरस के साधनों की
भूल कर मत भूल कर

जब कदाचिन मा फलेषु
कर्म का औचित्य क्या
इस पार तो सब सत्य है
उस पार का अस्तित्त्व क्या
तू चोट कर भरपूर ऐसी
रूढ़ियों के मूल पर

बी एल गौड़

एक नया प्रयोग :- कविता "क्या कुछ ऐसा हो सकता है ?

बीते दिन तो लौट के आयें
पर वे भोगे दर्द न लायें

बीते दिन जब लौट के आयें
यादों की गठरी ले आयें
मार चौकड़ी आँगन बैठें
बीती बातों को दोहरायें
फिर कुछ रात पुरानी आयें
रंग बिरंगे सपने लायें
आयें फिर कुछ भोर सुहानी
संग में इन्द्रधनुष ले आयें
क्या कुछ ऐसा हो सकता है ?

बीते मौसम जब जब आयें
गुजरे पल कुछ साथ में लायें
वे पल जिनमें बसी जिंदगी
सब के सब हमको दे जाएँ
यदि ऐसा संभव हो जाए
तो कुछ और बरस हम जीलें
यादों की मदिरा का प्याला
एक घूँट में सारा पीलें
यह जग फिर हम कभी न छोड़ें
चाहे परियां लेने आयें
क्या कुछ ऐसा हो सकता है ?
बी एल गौड़

हमराही

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