प्रिय मित्रो ! दिन सप्ताह और महीनों में बटा २०१० बस कुछ घंटों में अलविदा कहने वाला है , मैंने सोचा आने वाले
वर्ष के लिए आपसे कुछ कहूं :-
कौन जाने उस सुनहरी भोर का आलम
इस लिए ही लिख रहा मैं आज यह तहरीर
दे रहा शुभ कामनाएं मैं तुमेंह नव वर्ष कि
आगे बढ़ कर खुद लिखो तुम स्वयं कि तकदीर

और कुछ पंक्तियाँ इस तरह भी :-
क्षितज पर खड़ा नव दिवस कह रहा
चलो इन पलों को सुनहरा करें
गत वर्ष में जो रंग फीके रहे
आज फिर से उनेंह हम गहरा करें

बी एल गौड़

एक हिचकी
जो अभी आकर गयी है
कान में कुछ कह गयी है

क्या सच उसी को मान लूं
जो है गयी कहकर
याकि फिर चलता रहूँ
अपनी डगर पर
कशमकश में हूँ
करून मैं क्या
अनवरत चलता रहूँ
या तनिक विश्राम लूं
भोर छूटी धूप छूटी
और अब सुंदर सलोनी शाम
सज संवर कर आ गई है

फिर वही सपने
उजड़ते गाँव
सूखे ताल और पोखर
न कोयल है न अमुराई
न वंदनवार चौखट पर
न बजती आज शहनाई
न ढोलक है न अलगोजे
नहीं हैं गीत फागुन के
न बौर पहले सा घना अब है
न पीपल पात पर वह चिकनाई
ये हादसा कितना दुखद है
कि रौनक गाँव से जाकर
शहर में खो गई है

हर दिवस के अंत पर
सज संवरकर
आ खड़ी होती है सम्मुख शाम
पूछने को प्रशन
क्या किया दिनभर
क्या हुए पूरे अधूरे काम ?

सोचता भर हूँ
कह नहीं पाता
क्योंकि मेरा उत्तर भी
अधूरा उसके प्रश्न सा
मुझी से पूछता है प्रश्न
क्या कभी पूरे हुए हैं
इस जगत में आदमी के काम ?

तुम्हारे प्रश्न का उत्तर
नहीं है पास मेरे
बल्कि उलटा प्रश्न है
बस तनिक इतना बता दो
क्या कभी
उसको लिवाकर ला सकोगी
नाम जिसके आज तक लिखता रहा मैं
प्रीत के पैगाम

ए सूर्य ! तुम तुमसे प्रार्थना है
खींच करके रज्जुओं को
अश्व अपने थाम लो
न जाओ आज अस्ताचल
तनिक विश्राम लो
क्यों लग रहा ऐसा मुझे
कि आज वह आने को है
चाहता हूँ
मैं तुम्हारी इस बिखरती लालिमा से
एक चुटकी भर चुरा लूं
और भर दूं मांग उसकी
नाम जिसके कर चुका मैं
उम्र कि हर शाम
बी एल गौड़ .

हमराही