एक नई रचना
क्या सही है
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जलधि की व्याकुल गरजना
या नदी का
चिर मिलन को यों मचलना
क्या सही है

स्वप्न के चलचित्र मिटना
या किसी के
हाथ के कंगन खनकना
क्या सही है

बंद दरवाजे पे मेरे
अर्गला का
एक अरसे से न बजना
क्या सही है

उम्र का तेजी से बढना
कुछ ठहर कर
तीव्र गति से यों सरकना
क्या सही है
यह जगत मित्थ्या , न कहना
कुछ भी कहो
मगर यह सोच कर कहना
क्या सही है

रुकमनी के साथ रहना
इक विवशता
ध्यान में राधा के रमना
क्या सही है

गिरते निर्झर का गीत लिखूं
या लिखूं नगर की चहलपहल
या सूर्योदय के स्वागत में
मैं लिखूं भोर की कुछ हलचल

जब बिखरा ईंगुर धरती पर
आया मंदिर से शंखनाद
कानों से आकर टकराया
वह परम सत्य वह चिर निनाद
इस मन की दशा न रहती थिर
यह तो पारद सा है चंचल

मैं कह्ता पीर बड़ी मेरी
है दुखी बहुत अंतस रहता
पर गर्जन कर सारंग कह्ता, मैं
तुमसे कहीं अधिक बहता
बस अब न रहा अंतर कोई
अब तुम भी मुझ से हुए विरल

देखता हूँ जब क्षितिज पर
सूर्य को प्रस्थान करता
ठहर कर मैं एक पल को
फिर स्वयं से प्रशन करता

जोहते कब तक रहोगे
बाट तुम उस हमसफ़र की
जो न जाने जा बसा अब
कौन सी बस्ती नगर की
भीड़ रिश्तों की बहुत पर
कौन किसकी धीर धरता

पूछता अब नित्य मन से
राह अपनी को बदल दूं
छोड़ कर व्यापार नित का
तीर गंगा के शरण लूं
नीर का संगीत जिसका
पीर का उपचार करता

सोचता हूँ फिर ठहरकर
ए नियति ले चल कहीं पर
पर तनिक यह देख लेना
मैं रुकूं ऐसी जगह पर
प्यास से व्याकुल जहां पर
हो न कोई म्रग भटकता


कौन है नेपथ्य में
जो दे रहा मुझको निमंत्रण

कौन है
जो रात के अंतिम पहर में
पास आकर मुस्कराकर
है बताता राह आगे की
कौन करता रोज कोशिश
नींद कच्ची से जगाने की
जब कभी एकांत में
कुछ सोचता हूँ
तब न जाने कब कहाँ से
आ खड़े होते हैं सम्मुख
बीते हुए रीते हुए कुछ क्षण

कैसे बताऊँ मैं उसे
की स्वप्न बेहतर हैं
हकीकत से
पर नहीं है जीत
उनके भाग्य में
भोतिक जगत से
तू कहीं पर है
इसी एहसास ने
मुझको बनाया मर्ग सरीखा
ओर तब से
खोजने को ताल जल के
तप्त रेगिस्तान में
मैं कर रहा विचरण

जानता हूँ
स्वांस तो गिनकर मिले हैं
हैं अभी कुछ शेष
क्योंकि हम धीरे चले हैं
कर रहा अब तक प्रतीक्षा
मैं किसी के आगमन की
कौन जाने
वह कभी आये न आये
सुन सके जो बात मन की
बस स्वांस ही आधार है
चलता रहे
जब तक चले
दीप में जलती हुई बाती
जलती रहे
जब तक जले
कौन कर पाया कभी
आती जाती स्वांस पर
अपना नियंत्रण

हमराही