ऐसा क्यों होता है
की हम
उम्र के अंतिम पड़ाव तक
पहुँचते - पहुँचते
काठी के साथ - साथ
कद में भी घिस जाते हैं

शेष बची उमर
ज्यों ज्यों घटती है
जीने की ललक
त्यों त्यों बढती है
अभाव :-
धन के नहीं
अपनेपन के
बढ़ जाते हैं

लगने लगता है दिन
अपनी उमर से बड़ा
और रात
तय अवधी से अधिक लम्बी
परिवार
शतरंजी खानों में बंटकर
खेलता है खेल
शै और मात के
ऐसे हालात में हम
दो नहीं
कई कई पाटों के बीच
पिस जाते हैं

रिश्तों के
प्यार से लबालब घाटों में
न जाने कब
बारीक सूराख हो जाते हैं
और उम्र के
इस पड़ाव तक पहुँचते पहुँचते
सारे घट ris jaate hain

एक दिन यूँ ही
बेटी की किताब खोली
तो बीच पन्नों के मिली
चिपकी हुई एक तितली

न जाने क्यों
उस दिन
मन बहुत उदास रहा
बेटी समझ गई
मेरी उदासी का कारण
"बुरी बात है
किसी को मारकर
यों कैद रखना "
यादों की बात और है
हालांकि वे भी
मरी हुई तितलियों की तरह
चिपकी रहतीं हैं सदां
मन की किताब के पन्नों के बीच

पर एक अंतर है :-
लाख जतन करने पर भी
नहीं जीवित हो पातीं
किताब के पन्नों के बीच
चिपकी हुईं तितलियाँ
जबकि यादें
बिना किसी प्रयास के
मरकर भी जीवित रहतीं हैं
उडती हुई तितलिओं की तरह

सीता का दुःख
उर्मिला के सम्मुख
कुछ भी नहीं

छू लेगी जिसे
संवेदनहीनता
बनेगा काठ

उमर बीती
पर नहीं निकला
बात का डंक

बिना उसके
नदी के उस पार
कुछ भी नहीं

आंधी से डरे
बरगद से पेड़
कोपलें नहीं

मैंने अभी
कल परसों में
कुछ नए दोस्त बनाए हैं
गुलाबों को हटाकर
कुछ केक्टस लगाए हैं
पाई है जब से
हमदर्दी नागफनी की
भुला दी रात की रानी
महक चम्पा -चमेली -गैंदा गुलाब की
नज़र से बची रहे
फलती -फूलती नागफनी
इसी लिए आस -पास
केक्टस स्वरुप
कुछ पहरुए बिठाए हैं

मुझे मालूम है
नहीं चलेगा काम
केवल नागफनी और केक्टस से
काश !जी पाते हम
रिश्तों की खुशबुओं के बिना
जी पाते हम
बिना यादों की चुभन के

हो सकता है किसी दिन
कुछ भूले भटके लोग
मुझ से मिलने आयें
या फिर कुछ बच्चे
दादा -दादी की चाहत लिए
मेरे द्वार आयें
इसी लिए मैंने
घर के बाहर
झर्बेरिओं के कुछ पौधे लगाए हैं

झुर्रियों में इतहास समेटे
गंभीर चेहरे
करते हैं बयां हकीकत
चिकने सपाट चेहरों से

तुम्हरे हमारे चेहरों का अंतर
परिणाम है आदान प्रदान का
हमारी ओर से आदान हुआ
पर तुमाहरी ओर से प्रदान नहीं हुआ
जिस तरह
गाँव से शहर को
पलायन तो हुआ
पर पुनरागमन नहीं हुआ
मांगती रह गई हिसाब
श्यामल सांझ उजले सवेरों से

लैब से खिलने लगे
बे मौसम फूल
हंसने लगे लोग बेमतलब
तभी से बन गया है मन
छोड़ यह परिवेश कहीं जाने का

देख कर दुर्दशा इन्सानित की
इंसानों के बीच
जहां दूर तलक फैली कीच ही कीच
कोई कमल नहीं
पूछते हैं प्रशन उजड़े गाँव
चमकीले सहारों से

हमराही