एक हिचकी
जो अभी आकर गयी है
कान में कुछ कह गयी है

क्या सच उसी को मान लूं
जो है गयी कहकर
याकि फिर चलता रहूँ
अपनी डगर पर
कशमकश में हूँ
करून मैं क्या
अनवरत चलता रहूँ
या तनिक विश्राम लूं
भोर छूटी धूप छूटी
और अब सुंदर सलोनी शाम
सज संवर कर आ गई है

फिर वही सपने
उजड़ते गाँव
सूखे ताल और पोखर
न कोयल है न अमुराई
न वंदनवार चौखट पर
न बजती आज शहनाई
न ढोलक है न अलगोजे
नहीं हैं गीत फागुन के
न बौर पहले सा घना अब है
न पीपल पात पर वह चिकनाई
ये हादसा कितना दुखद है
कि रौनक गाँव से जाकर
शहर में खो गई है

2 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा… 27 दिस॰ 2010, 2:51:00 am  

हिचकी पर भी रचना!
बहुत खूब!
अच्छा स्रजन किया है!

बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

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