जी हाँ अभी 10-15 दिन पहले दिल्ली में एक सुनामी आई थी जिसने दस जनपथ, जन्तर मन्तर, राष्ट्रपति भवन, दिल्ली की मुख्यमन्त्री का आवास, गृह मन्त्री का निवास और न जाने किस किस भवन की सीमाओं पर दस्तक दी थी। उसे चेतावनी दी थी कि महोदय ! आप कृपया नींद से जगें और कहा था
‘‘ ऐसे कब तक काम चलेगा पूछ रहा सैलाब’’।
इस भीड़ की सुनामी के सभी लोग उस मेडिकल छात्रा की सपोर्ट में थे और न्याय की माँग कर रहे थे कि जिन गुण्डांे ने उसके साथ दुराचार कर उसे मौत के मुहाने पर पहुँचा दिया था और वह जीवन और मौत के बीच झूल रही थी उन गुण्डों को फाँसी पर लटकाया जाये।
    तो दोस्तो ! जिस सुनामी की मैं बात कर रहा हूँ यह सुनामी थी स्कूल के बच्चों की, काॅलेज के लड़के लड़कियों की, विश्वविद्यालय के उन प्रबुद्ध छात्र-छात्राओं की जो हमारे देश के भविष्य हैं। और इन सब के साथ आये थे दिल्ली में कार्यरत युवक और युवतियाँ। दूसरे और तीसरे दिन से इसमें शामिल होने लगे थे शहर के प्रौढ़ और बुजुर्ग और घर की कमकाजी महिलायें । उसके बाद वे अभियन्ता और अधिवक्ता भी जिनके जमीर ने उन्हें ललकारा था कि उठो और इस सिस्टम के विरूद्ध लड़ रही भीड़ का साथ दो, मूक दर्शक बन कर मत रहो।
    मेरे जैसे 76 वर्षीय कुछ नाकारा लोग भी इस सुनामी को देखने भर गये और शायद सभी ने वहाँ जाकर यह निर्णय लिया हो कि चलो हम यदि शरीर से कुछ नहीं कर सकते तो अपनी कलम पर धार चढ़ायेंग,े उसे तलवार मे तबदील करेंगे और इस भीड़ का साझीदार बनेगा हमारा लेखन। यही सब सोचकर और भीड़ का आँकलन कर कि इस भीड़ में कितने मवाली हैं कितने गुण्डे हैं, मैं चुपचाप अपने घर लौट आया। और जिन्दगी में जो गुण्डे मवाली मैंने देखे हैं उनमें से एक भी उस भीड़ में नज़र नहीं आया, नजर आये तो केवल वे मासूम चेहरे जो तमतमाये हुअे थे एक क्रोध से जो माँग रहे थे न्याय की इस सड़ी हुई व्यवस्था से जो याद दिलाती है एक पुराने नाटक की ‘‘ अंधेर नगरी चैपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा’’ कुछ इस तरह का नाटक था जिसमें राजा ने एक अपराधी को फाँसी देने के लिये एक फन्दा बनवाया था लेकिन उसके गले में फिट न होने पर उसने राजआज्ञा जारी कर दी थी कि अब यह फन्दा उस गले में डाल दिया जाये जिसमें यह फिट आ जाये। मित्रो ! 27 दिसम्बर को यह सुनामी कुछ धीमी पड़ी और अपने मूल स्त्रोत में समा गई क्योंकि उस पीडि़त लड़की को इस दिन बेहतर इलाज के लिए सिंगापुर भेज दिया गया था।

इस सुनामी ने हमारे हुकुमरानों को, हमारी कार्य कारिणी को, हम पर राज करने वाले राजाओं को, मेरा मतलब नेताओ को कुछ सोचने पर मजबूर किया है। अब सुनामी यह देख रही है कि हमारी यह दस्तक क्या रंग लायेगी। क्या राजपथ पर की गई घोषणायें कानून का रूप लेंगी ? क्या अंग्रेजो के जमाने की मानसिकता लिये हुकुमरानों की सेाच बदलेगी ? और अगर ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित रूप में यह सुनामी फिर लौटेगी। अभी तो एक बाढ़ की शक्ल में आई थी लेकिन यह दोबारा, तिब़ारा जब आयेगी तो सचमुच में उस सुनामी की याद दिलायेगी जिसमें लाखों लोग लापता हो गये थे और बड़े-बड़े ऊँचे आलीशान मकान जमींदोज हो गये थे। फिर उस सुनामी को शायद ही कोई रोक पाये। और लिखते-लिखते यह खबर आई कि आज दरिन्दगी की शिकार वह पीडि़त लड़की यह दुनिया छोड़ गई। उसकी मौत की खबर ने उस मानुषी सुनामी में फिर से भूचाल ला दिया है। तीन दिन राजधानी के दस मेट्रो स्टेशन बंद रहे , रास्तों पर पुलिस का पहरा है। आनन-फानन में सरकार ने फुर्ती दिखाते हुए लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया है, अबव ह राख के एक ढेर में तबदील हो गई है। लेकिन इस राख ने भी एक ऐसा तिलंगा छोड़ दिया है जो न केवल उस लड़की को न्याय दिलाएगा बल्कि संपूर्ण महिला वर्ग के लिए भी कुछ न कुछ अच्छे कदम जरूर उठवायेगा।
    जो कुछ भी अब तक हो चुका है वह अब अंगार पर जमी राख की तह में छुप गया है। इस सब में एक दुखद घटना यह घटी कि एक सिपाही की मौत हो गई। और कारण यह बताया जा रहा है कि सुनामी की भीड़ में जो असमाजिक तत्व शामिल हो गये थे उन्होंने देश के इस वीर सिपाही को निर्दयता से मार डाला। यह कह रहा है उसका अपना महकमा और पुलिस के आला अफ़सर जिन्होंने बड़ी तीव्रता से इस काण्ड को अन्जाम देने वाले आठ आदमियों को पकड़ भी लिया है। ईश्वर करे पकड़े गये लोग सही हांे पलान्ट किये गये नहीं, और यदि वे निर्दोष हैं तो ईश्वर उनकी मदद करे कि वे छूट जायें।
    जो सिपाही इस आन्दोलन का शिकार हुआ वह हमसे अलग नही था। वह उसी समाज की एक इकाई था जिसके हम अंग हैं। वह भी हममें से ही किसी न किसी का सगा था। दोषियों को सजा अवश्य मिले। लेकिन इसमें कितने विरोधाभास हैं। चश्मदीद गवाह कर रहा है कि मैंने उन्हें गिरते हुअे तब देख जब वे भाग रहे थे, डाक्टर कहता है कि अन्दरूनी या बाहरी चोट के कहीं निशान नहीं थे लेकिन पुलिस कहती है कि थेे अब तो न्यायालय ही अपनी तराजू पर तोल कर बतायेगा कि सत्य क्या है। यह अलग बात है कि कालान्तर में आज के साक्ष्य समय की गर्द में विलीन हो जायें और न्याय उसी प्रकार का हो जैसा होता आया है।
    न्याय की बानगी आप वर्षों से देखते आये हैं। जेलें भरी पड़ी हैं ऐसे कैदियों से जो वर्षों से सजा काट रहे हैं जिन्हें महीनों की सजा होनी थी उनके किये गये जुर्म की। न तो जरूरत के मुताबित जज हैं न अदालते हैं। लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हैं और सरकार के पास इस फालतू काम के लिये न पैसा है न कोई नरेगा की तरह योजना ही। सब राज करेगें, अपना अपना कार्यकाल पूरा करेंगे और अपने उस सरकारी घर में जाकर विश्राम करेंगे जो सरकार उन्हें इस प्रकार से देश के लिये की गई सेवा के उपरान्त इनाम बतौर देती है।
अब तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। हरियाणा की खापों के चैधरी कह रहे हैं कि ऐसे दरिंदों को सजा दी जाए पर फंासी की नहीं। सरकार पेशोपेश में है, दुआ कर रही है भगवान से कि भगवान! बस एक बार इस संकट से उबर जाए, फिर की फिर देखेंगे।
देखिए और इंतजार कीजिए कि क्या-क्या उपाय कर पाती है नारी जाति की अस्मिता को बचाने के लिए हमारी सरकार।

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