कानून की आँखों पर पट्टी तो इसलिये बंधी रहती है कि न्याय करते समय वह भारी और हलके पलड़े को न देख पाये लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि उस पट्टी का अर्थ है कि चाहे कुछ भी होता रहे उसे देखा नहीं जाये। 16 दिसम्बर सन 2012 को बलात्कार काण्ड का सबसे बर्बर अपराधी आगामी 4 जून को सम्भवतया छूट जाये, यह हमारे कानून की एक बानगी है। 16 दिसम्बर 2012 को जो दामिनी रेप काण्ड हुआ उसमें 6 जानवर पकड़े गये मतलब 6 दरिन्दे पकड़े गये जिनमें सब से छोटा-बच्चा, नाबालिग-अबोध जिसने सबसे घिनोना और बर्बता का परिचय उस बलात्कार में दिया, अर्थात उस घिनोने नाटक का सबसे घिनोने पात्र को आने वाली 4 जून को रिहा कर दिया जायेगा और शायद इस महत्वपूर्ण फैसले में एक वाक्य भी जोड़ा जाये और वह हैं ‘‘बाइज्जत’’। अकसर कई दिल दहलाने वाले मुकदमों में जब भी कोई ऐसा किरदार रिहा होता है तो यही लिखा देखा गया है कि फलाँ-फलाँ को ‘बाइज्जत’ बरी किया जाता है। अगर न्यायालय यह ना भी लिखे तो भी काम चल सकता है पर यह तो चलन है न। अब देखें क्या लिखते हैं उसे रिहा करते हुअे माननीय न्यायाधीश जो बेचारे न चाहते हुअे भी वही करते हैं जो कानून कहता है, वकील कहता है या फिर मौकाये वारदात पर मौजूद गवाह कहता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि मौकाये वारदात से बहुत दूर रहने वाला गवाह भी मौकाये वारदात पर मौजूद हो जाता है। चलिये हम तो इस केस विशेष की बात पर आते हैं जिसने दिल्ली के युवा को मथ कर रख दिया। जन्तर मन्तर और इण्डियागेट पर जो हुजूम उमड़कर एकत्र हुआ था इस फैसले से उसके मन पर क्या बीतेगी और क्या बीतेगी उस लड़की के माँ-बाप पर जिनकी बेटी उन दरिन्दों का शिकार बनी और जो बाद में बिना इंसाफ मिले ही बस इंसाफ की एक उम्मीद लेकर इस दुनिया को छोड़ कर चली गई। और मेरी निजी राय में उसका मर जाना ही अच्छा रहा क्योंकि यदि वह जीवित रहती और नाबालिग को छुट्टा घूमता देखती तो उस पर क्या बीतती तब तो शायद वह प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा मरती।
    नाबालिग और बालिग की सीमा पर जरा गौर कीजिये। नाबालिग यदि 17 साल 29 दिन का है और वह एक जघन्य रेप जैसा घिनोना कार्य करता है तो अधिकतम सजा तीन साल अर्थात तीन साल के बाद उसे मौका दिया जाता है सुधरने का। और इस प्रकार के मामले में जो तथ्य सामने आये हैं वे दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष नाबालिगों द्वारा किये गये दुष्कर्म के मामलों में पिछले 11 सालों में लगभग 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई है ।
    स्कूल के रजिस्टर में दर्ज जन्म की तारीख की वही होती है जो बच्चे के पिता द्वारा बोलकर लिखवाई जाती है। महानगरों की बात को यदि छोड़ दिया जाये तो कितने लोगों के पास किसी नगर निगम का या कमेटी का या ग्राम पंचायत का जारी किया हुआ प्रमाण पत्र होता है तो क्या इस केस में दिल्ली पुलिस का यह कहना जायज नहीं कि इस बर्बर नाबालिगा की हड्डियों का टेस्ट करवाये जाये। परन्तु पता नहीं क्यों जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड कहता है कि इस नाबालिग के हड्डी टेस्ट की कोई आवश्यकता ही नहीं है। आने वाली 4 जून को जिस दिन वह रात रात में बालिग हो जायेगा तो संभवतया छूट कर बिना कोई सजा पाये अपने घर जायेगा । वह फिर से अपनी कक्षा में जाकर अपने साथियों को जो कुछ उसने किया है सुनायेगा और हो सकता है कि बजाय सुधरने को वह कोई मैन ईटर ही बन जाये और फिर से वैसे ही कार्यों में लिप्त हो जाये।
अगर दूर की सोचें तो यह भी हो सकता है कि कल को न जाने कितने ऐसे नाबालिग ऐसे घिनौने करतब करके खड़े हो जायंे यही सोच कर की हम तो नाबालिग हैं और बचपने में किए गये जघन्य अपराध को तो कानून माफ कर देता है। ऐसे में यह अपराध घटने की बजाय और बढ़ सकते हैं। अगर कानून 17 साल 29 दिन के व्यक्ति को नाबालिग मानती है यानी कानून की नजर में वह एक मासूम बच्चा होता है जो नासमझी के चलते वह अपराध कर बैठा लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि बस 17 साल 30 दिन का व्यक्ति अर्थात 18 साल का व्यक्ति केवल एक ही दिन में कानून की नजर में समझदार कैसे हो जाता है। अगर देखा जाए तो उस नाबालिग का दिमाग तो बाकी पांचों अपराधियों से भी ज्यादा तेज तर्रार चला तभी तो उसने सबूतों को मिटाने के लिए कितने घिनोने कामों को अंजाम दिया। इसलिए बालिग और नाबालिग दिमाग के विकास पर निर्भर होना चाहिए न कि उम्र पर। कितने व्यस्क ऐसे होते हैं जिनका दिमागी विकास बहुत कम होता है लेकिन उनकी उम्र काफी होती है।
    पता नहीं क्यों कानून बनाने वालों के कानों पर जूँ नहीं रैंगती कि कानून की किताबों में दर्ज इस तरह के अनेक कानूनों में बदलाव की पहल की जाये।  इसके पीछे हमें तो यही मानसिकता नज़र आती है कि जैसा चल रहा है ठीक है बेवजह जहमत क्यों मौल ली जाये। और फिर जो कुछ भी बीत रहा है वह तो आम जनता के साथ बीत रहा है वे सब तो अपवाद की श्रेणी में आते हैं। उनके लिये तो इस प्रकार के हादसे केवल अपनी राजनीति को चमकाने के काम आते हैं इससे अधिक उनके लिये ऐसी घटनाओं का कोई महत्व नहीं होता।
    यह सब दर्शाता है कि हमारे देश को चलाने वाले कितने  संवेदनहीन होते जा रहे हैं। और साथ ही देश के युवाओं का दिल-दिमाग किस तरह इस सदियों पुरानी व्यवस्था के प्रति क्रोध से लबालब होता जा रहा है। जन्तर-मन्तर या इण्डिया गेट पर लाखों की संख्या में जमा हुए हाथों में जलती मौमबत्तियां लिये जिन लोगों ने वर्तमान व्यवस्था के प्रति जो एक अहिंसक प्रदर्शन किया वह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। यदि यह ढर्रा इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली के युवाओं के साथ-साथ सारे भारत के युवा और विद्यार्थी सड़कों पर एक साथ आ जायेंगे।
बी.एल.गौड़

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