सूरज अब तू अपने घर जा
साँझ लगी ढलने
मैं भी धीरे-धीरे पहँुचँू
घर आँगन अपने।

सुबह सवेरे फिर आ जाना
उसी ठिकाने पर
पंक्षी जब नीड़ों से निकलें
फैला अपने पर
तब हम दोनों साथ चलेंगे
फिर संध्या की ओर
तुम अस्ताचल ओर सरकना
मैं नदियों के छोर
घर में बाट जोहते होंगे
कुछ मेरे अपने।

मन-भावन का मिलना जग में
केवल सपना है
अमर प्रेमी भी इस दुनिया में
एक कल्पना है
सारी रात बदल कर करवट
जब हमने काटी
ऐसे कब तक काम चलेगा
पूछे यह माटी
बुद्धि कहे मन से सुन पागल
देख न तू सपने।

तू अविनाशी अजर अमर तो
मैं भी उसका अंश
तुझको व्याधि नहीं छू पाती
पर मैं सहता दंश
सबसे बड़ी पीर है मेरी
मिला ना कोई मीत
मन भी कितना मुरख निकला
पग-पग ढँूडे प्रीति
रहा दौड़ता हिरन सरीखा
नहीं मिले झरने।



बी.एल. गौड़

3 टिप्पणियाँ:

सुन्दर भाव

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-12-2012) के चर्चा मंच-१०८८ (आइए कुछ बातें करें!) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!

बहुत सुंदर कविता, सार्थक सन्देश.

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